कश्मीरी पण्डितों की पीड़ा और न्याय
यह निहायत ही बचकानी बात होगी कि कश्मीरी पंडित जिन पर जुल्म हुए और मजबूरी में उन्हें पलायन करना पड़ा अब 32 सालों बाद उनमें से बहुत बड़ा प्रतिशत बहुत खुशहाल व्यवस्थित स्थापित है। मुझे नही लगता अब सब कुछ अपनी मेहनत मशक्कत से पाने के बाद देश विदेश के विभिन्न हिस्सों में रहे कश्मीरी हिन्दू वापस कश्मीर जा कर बसेंगे। तो क्या पण्डितों उनको इंसाफ नही मिलना चाहिये ?
कश्मीर फ़ाइल फ़िल्म ने मीडिया के हर क्षेत्र में ऐसी बहस चर्चा का आगाज किया है कि अखबार टीवी यूट्यूब डिजिटल मीडिया हर जगह सिर्फ और सिर्फ पंडितों की बात हो रही है पक्ष में या फ़िल्म के विरुद्ध। फ़िल्म को प्यार करिये या नफरत लेकिन आपको पंडितों से जोड़ा जरूर है।बातें बहुत हुई अब समाधान होना चाहिए समाधान की बात बहुत अधिक हुई नही। सबसे पहला समाधान होना चाहिए जो कश्मीरी पंडित सालों से जम्मू कश्मीर में टेंटो में रह रहे है हम केन्द्रीय सरकार को यह हक देते है कि वो उनके लिये एक ही स्थान पर पक्के 3 बीएचके फ्लैट बनाकर दे। हक देने से मतलब है सरकार हमारा पैसा पंडितों की भलाई के लिए लगाये। उनके बच्चों की पूर्ण शिक्षा बिल्कुल फ्री हो।
सरकारे दो साल से 80% गरीब परिवारों को फ्री राशन दे रही है अब उस पर अंकुश लगना चाहिए और व्यवस्था होनी चाहिए जो वास्तव में जरूरतमंद हो उसे ही फ्री राशन मिले। टेंटो में रह रहे पंडितों को फ्लैट के साथ अगले 10 वर्षो तक फ्री राशन, नोकरी या उन्हें पैरों पर खड़े करने का प्रयास करे। वैसे मैं फ्री की सौगात के पक्ष में बिल्कुल नही हूँ शायद पण्डित भी न हो । लेकिन जरूरतमंद को सुविधा मिलनी चाहिए।
देश विदेश में रह रहे पण्डितों के पुशतैनी मकानों पर उन्हें कब्जा दिलाया जाये और उन मकानों के पुनर्निर्माण के लिए उचित मुआवजा दिया जाये। यह निश्चित है कि अब जीवन में मुक़ाम हासिल कर चुके पण्डित पुनः कश्मीर में बसने से रहे। ख़ासकर आज की पीढ़ी तो कदापी स्थापित होने के लिए नही जायेगी । लेकिन साल में एक या दो बार पण्डित अपने पुश्तैनी मकानो में जाकर जरूर खुशी मनायेंगे एकत्र होकर जश्न मनायेंगे। वो अपने पुश्तैनी मकान का कुछ भी करे उन्हें पूरा हक हैं।
हालाँकि अभी भी श्री नगर में स्थिति बहुत अनकूल नही है। कश्मीरी पण्डितो की सुरक्षा सबसे बड़ा धर्मसंकट है। फिर क्या कश्मीरी हिन्दुओं की जमीन जायदाद पर कब्जा जमा चुके लोग थाली में परोस कर तो वापस करने से रहे। इसके लिये सरकार को संकल्प लेना होगा। कठिनाईयां है लेकिन असम्भव कुछ नही सरकार ठान ले तो क्या नही कर सकती । 370 और 35 ए भी तो इसी सरकार ने हटाया है।
अब मुद्दा जिम्मेवार कौन वी पी सिंह भाजपा सरकार, फ़ारुख़ अब्दुल्ला, जगमोहन या अन्य सरकारें ?
वी पी सिंह का तो एजेंडा ही कुछ और था कांग्रेस मानसिकता से आये वीपी समाज में ऐसी खाई पैदा कर गए जिसका खामियाजा अगले 100 सालों तक भुगतना पड़ेगा। उनका वो एजेंडा पूरा हुआ। वैसे भी वीपी सरकार को आये कुछ समय ही हुआ था न उनकी सामर्थ्य थी न इक्छा शक्ति इसीलिए कुछ समय बाद हमेशा के लिए उनका पतन हो गया। उन्होंने क्या कमाया सिवाय बदनामी के।
भाजपा बाहर से वीपी सिंह को समर्थन दे रही थी बाहर से समर्थन देने वाली पार्टी किसी तरह का निर्णय लेने में कतई सक्षम नही होती। ऐसी सरकारों का चलना या घिसटना ही मुश्किल से होता है। हाँ भाजपा चाहती तो पंडितों के मुद्दों पर खुद को अलग कर सकती थी। लेकिन उस समय क्या परिस्थिति थी क्या इस स्थिति में थी कि उनकी बात सुनी जाती।
फ़ारुख़ अब्दुल्ला की भूमिका पर साज़िश के तहत जाँच होनी चाहिए। 19 जनवरी1990 को कश्मीरी पण्डितों का कत्लेआम होता है उन्हें इस कदर डराया धमकाया जाता है कि 4-5 लाख लोग रातों रात अपनी जान इज्जत आबरू बचाने के लिए मजबूरी वश कश्मीर छोड़ने पर विवश हुए 18 जनवरी 1990 को फ़ारुख़ अब्दुल्ला मुख्यमंत्री स्तीफा देते है जिनके कार्यकाल में 19 जनवरी को कत्लेआम करने वालों को सह मिलती रही थी।
क्या ऐसा सम्भव है कि एक दिन पहले तक मुख्यमंत्री पद पर रहने वाले फ़ारुख़ को पता ही ना हो कि कल क्या होने वाला है। सोची समझी साजिश के तहत फ़ारुख़ स्तीफा देकर चुप्पी साध लेते है। उनकी हिम्मत नही होती कि वो कत्लेआम और पण्डितों के साथ हुए अत्याचार पर कोई बात कह सके। यानि वो पंडितों पर हुए हत्याचार और अत्याचार में बराबर के भागीदार है और इसकी सजा उन्हें मिलनी चाहिए।
याद रहे जब कश्मीरी पंडितों की हत्या और अत्याचार होना शुरू हुए थे उस समय दिल्ली में राजीव गाँधी और कश्मीर में फ़ारुख़ अब्दुल्ला की सरकार थी आतंकवाद चरम पर था उस पर नकेल कसने के ठोस प्रयास नही किये गये । आतंकवादियों की हिम्मत इतनी बढ़ गई कि वो जब चाहे किसी को कत्ल कर दे अगवा कर ले बलात्कार कर दे शरीर को चीर दे, कत्ल कर मृतक पंडित के चारो तरफ जश्न मनाये।
आप कह और सोच सकते है कि सेना तो उस समय भी थी वो कुछ क्यों नही कर पा रही थी। उसकी वजह थी कि आज की सरकार की तरफ़ से कड़े फैसले लेने की छूट उस समय आर्मी को नही थी। आज जैसे आतंकवादियों को तुरंत हलाक करने में समय नही लगता वैसा उस समय की सेना को छूट नही थी। आर्मी के हाथ बंधे थे। वरना भारत की सेना के सामने किसी आतंकवादी की क्या मजाल जो सप्ताह भर से अधिक जीवित रह जाये। जैसा आज होता है सेना उस समय भी वैसी ही थी जैसी आज है।
जगमोहन ने कश्मीर के राज्यपाल के रूप में अपने पहले कार्यकाल में कश्मीर का कायापलट किया था जो विकास किया था उसके मुरीद आज भी कश्मीर के हर वर्ग में मिल जायेंगे।
दूसरा कार्यकाल उनका 19 जनवरी 1990 की रात जम्मू पहुँचने से हुआ था कश्मीर के सभी आलाधिकारी उनकी जी हजूरी में जम्मू पहुँचे हुए थे राज्यपाल जगमोहन को 19 को ही श्रीनगर पहुँचना था लेकिन बर्फवारी और खराब मौसम के चलते वो न हवाई न जमीनी मार्ग से श्रीनगर पहुँच पा रहे थे । जम्मू में बैठकर उन्होंने केन्द्रीय सरकार पर सख़्त कार्यवाही करने का दबाब डालने की कोशिश की लेकिन दिल्ली में बैठे हुक्मरान समझ ही नही पाये कि पंडितों पर कत्लेआम अत्याचार जुल्म इतना भयानक हुआ है या उन्होंने समझने की जरूरत ही नही समझी।
फिर उस समय आज की माफ़िक डिजीटल माध्यम भी नही था कि खबर खबर से पहले पहुँच जाये।
32 साल या दो पीढ़ी का समय क्यों लगा पंडितों की पीड़ा को समझने और कश्मीर फ़ाइल के माध्यम से देश की प्रतिक्रिया मिलने में ?
दरअसल कश्मीर फ़ाइल अभी के काल खंड में बनने और रिलीज होने में वर्तमान सरकार में ही सम्भव था। पिछले 32 वर्षों में पहली बात तो इस तरह की फ़िल्म बनती नही बन जाती तो रिलीज ही नही हो पाती। वजह कांग्रेस और भाजपा की अटल सरकार मिली जुली सरकारें थी मिली जुली सरकारें पण्डितों पर हुए हत्या-अत्याचारों पर कोई ठोस फैसले लेने की स्थिति में नही थी। उन्हें किसी तरह अपनी सरकार का कार्यकाल पूरा करना था।
आप सोचिए कश्मीर फ़ाइल के विरोध में आज कितने लोग उठ खड़े हुए है यदि ऐसा पहले होता तो विरोध करने वाले पण्डितों पर हुए अत्याचार को नया ही रंग दे देते।
आज विरोध करने वालो की आवाज़ इसलिये कमजोर लग रही है क्योंकि कश्मीरी पण्डितों के पक्ष में पूरे देश ही नही विदेश में भी आवाज़ इतनी जोर से बुलंद हुई है कि सच सामने आ गया है सच को आप कुछ समय के लिए दबा सकते है इतिहास को साजिश के तहत तोड़ मरोड़ सकते है लेकिन सच और वास्तविक इतिहास समयानुसार अपना रंग दिखाते जरूर है। पण्डितों के सच और इतिहास के रंग की रंगत दिखाने में 32 साल लग गये लेकिन रंग बड़ा चोखा आया है।
कश्मीर से बहुत अलग नही है बंगाल की त्रासदीउदाहरण के लिए मैंने मेरे से पहले और बाद की पीढ़ी ने कश्मीरी पंडितों के विषय में पढ़ा जरूर लेकिन गम्भीरता को नही समझ पाये ठीक वैसे ही जैसे कि बंगाल में चुनाव के बाद हुई हिंसा बल्तकार आगजनी और पलायन को नही समझ पाए सोचिए आज हर तरफ मीडिया सोशल मीडिया टीवी मीडिया मोबाइल मीडिया होने के बाद भी दिल्ली मुम्बई या देश के अन्य हिस्सों में रह रहे लोग बंगाल की पीड़ा नही समझ पाए तो 32 साल पहले के कत्लेआम पलायन की पीड़ा कैसे समझ पाते, कश्मीर फ़ाइल की तरह ही जब कभी बंगाल के पीड़ितों पर फ़िल्म बनेगी तब हम आम जन उनकी पीड़ा को समझ पाएंगे।
वापस कश्मीर पर आते है
प्रश्न यह है कि मोदी सरकार 7 साल क्या कर रही थी पण्डितों को न्याय देने के लिए क्या वो कश्मीर फ़ाइल का इंतजार कर रही थी ?
प्रश्न बहुत सटीक है इसे ऐसे समझिये पहले कार्यकाल में सम्पूर्ण जनादेश वाली सरकार थी और देश को उनसे बहुत उम्मीदें थी। चुनोतियाँ बहुत थी पूरा विपक्ष एकजुट होकर भाजपा पर बेमतलब का दबाब डालने की कोशिश कर रहा था। भाजपा विभिन्न प्रदेशों के चुनावों को जीत कर खुद को और मजबूत करने के सफल प्रयास कर रही थी,
पण्डितों को न्याय का विचार प्रधानमंत्री के दिमाग में हमेशा था और होगा वो इन्तजार कर रहे थे सही समय का, कश्मीर फ़ाइल ने राहे आसान कर दी है अब पूरी दुनियां पण्डितों के साथ है ।
सरकार क्या कर सकती है समाधान शुरू में बताए है लेकिन सरकार में बैठे लोग और प्रधानमंत्री मुझसे कहीं बेहतर कार्यवाही करेंगे ऐसी उम्मीद कश्मीरी हिंदुओं को और इस देश को उनसे है।
सबको पता है प्रधानमंत्री अपने औचक निर्णयों से सबको आश्चर्य में डालते रहे है। 370 और 35 ए ऐसे ही निर्णयों की बानगी है ।
दोषियों को सज़ा मिलना भी जरूरी है। उस समय से अभी तक हमें यह समझाने की कोशिश होती रही है कि कश्मीरियों पर जुल्म पाकिस्तान से आये आतंकवादियों ने किया था यह सच हो सकता है लेकिन स्थानीय कश्मीरी मुसलमानो की सहभागिता थी प्रतिशत कम बढ़ हो सकता है।
बहुत से लोग और गुलामनबी आज़ाद कह रहे है पूरा सच नही दिखाया गया फ़िल्म में । क्या दिखाते कश्मीरी मुसलमान आतंकवादी बनकर कश्मीरी मुसलमानों को मार रहे है। फिर यदि किसी को गिलास आधा भरा या आधा खाली लग रहा है तो लोग आज़ाद है अपनी बात रखने के लिए फ़िल्म बनाये पूरा सच दिखाए। केजरीवाल की मदद भी ली जा सकती है। फ़िल्म बनने के बाद केजरीवाल के सहयोग से उस फिल्म को यूट्यूब पर भी फ्री डाल सकते है। फ़िल्म की लागत तो गुलाम फ़ारुख़ केजरीवाल महबूबा मुफ्ती से मिल ही जायेगी। फ़िल्म भी झूठी नही होगी।
यही समय है कि गोधरा कांड, 1984 के दंगे, पंजाब आतंकवाद, इमरजेंसी जैसे विषयों पर भी फ़िल्म बननी चाहिए। इतिहास सजग चुस्त दुरुस्त रहना चाहिए।
तुरन्त प्रश्न आ गया गुजरात दंगों पर क्यों नही । बिल्कुल बननी चाहिये फिल्मकारों को आगे आना चाहिए सच दिखाना चाहिये। गोधरा पार्ट 1 और गुजरात दंगे पार्ट 2 भी बनायी जा सकती है। सुझाव दे दिया है अमल करें।
हरीश शर्मा
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