अजपथों से हिमशिखरों तक - ललित पंत
आमतौर पर मैं किताबों की समीक्षा नहीं करता क्योंकि मुझे लगता है लेखक जब कोई किताब लिखता है तो उसके कई साल अनुभव, मेहनत, समझ लगती है। किताब यदि ललित पंत जैसे अर्थशास्त्री जिन्हें बेहतर समाज शास्त्री कहा जाएं साथ ही कठिन यात्राओं के पथारोही लिखे तो मेरे जैसे अदने से लेखक का उनकी किताब पर कुछ लिखना कहना छोटा मुंह और बड़ी बात होगी।
तब भी लिख रहा हूं कह रहा हूं क्योंकि वो मेरे प्रिय दादा है पहाड़ों में क्या कई जगह बड़े भाई या बड़ों को सम्मान स्वरूप दादा कहा जाता है।
ललित दा को मै 1987 से जानता हूं उनसे मिलना बातें करना हमेशा बहुत कुछ सीखना ही है। पिथौरागढ़ कुमाऊं या घुमक्कड़ी को जानना सीखना है तो उनसे बेहतर कोई नहीं और उस घुमक्कड़ी को किताब, डॉक्युमेंट्री लेख में तब्दील करना है तो उनके लिखे को पढ़ लो या मिल कर बतियां लो तो समझो कुछ तो लिखना सीख ही जाओगे।
उनकी किताब “अजपथों से हिमशिखरों तक” ऐसी अद्भुत किताब है जिसे पढ़कर आप वो सारी यात्राएं कर आते है जिसका जिक्र इस किताब में है । इस किताब की सबसे बड़ी खूबी यह है जो लोग उत्कृष्ट हिंदी पढ़ना लिखना भूल गए है उन्हें यह किताब हिन्दी सीखा देगी।
पहाड़ों से प्रकृति से प्यार तो सभी को होता है। यह किताब पढ़कर निश्चित मानिए आप अगली गर्मियों में आदि कैलास जरूर जायेंगे। दा ने जो किताब लिखी है वो आदि कैलास तक पैदल चलने की दास्तान है। जिसमें हम चलते हुए रास्ते और गाँव के लोगो से मिलते है । खानपान संस्कृति त्यौहार इतिहास इन जगहों का अर्थतंत्र प्राचीन और वर्तमान समय के किस्से कहानियां सब साथ साथ चलते है।
किताब में कहने को तीन यात्राएं है लेकिन पढ़ते समय आप साक्षात खुद को वहां पाते है जो पढ़ रहे है।
सबसे पहले छोटा कैलास की यात्रा है मोटर मार्ग से पिथौरागढ़ से धारचूला 35 साल पहले भी जाते थे आज भी जाते है। लेकिन यह किताब साथ रखेंगे तो आपकी घुमक्कड़ी का मिजाज़ ही बदल जायेगा । आपको लगेगा आपको बहुत कुछ पता है इससे देखने का नज़रिया आपको बेहतर सीख देगा।
शौकाओं वनराउत की पीड़ा को इस किताब के माध्यम से अंदर तक महसूस किया जा सकता है। तवाघाट से लिपुलेख तक के सफर को दा की एक पंक्ति से समझा जा सकता है । वो लिखते है सच जाने तो इस हिस्से के शौका आदिम समाज की पूरी अर्थचर्या व प्रवासी जीवन की रीति इसी लीपू मार्ग पर टिकी थी।
पूरी यात्रा ऐसे छोटे किस्से कहानियों से भरी है जिसमें आप छोटी सी चाय की दुकान का जिक्र भी पाएंगे तो स्कन्द पुराण में लिखें विवरण भी बहुतायत से है । वनराउत पर उनके लिखे ने मेरी इस दुर्लभतम आदिम जाति पर डॉक्यूमेंट्री बनाने की जिज्ञासा बड़ा दी है।
जौलजीबी गोरी और काली नदी का संगम स्थल है इतनी छोटी सी बड़ी बात की जानकारी इसी किताब से मिलेगी। ये भी कि काली को ही महाकाली या शारदा नदी भी कहा जाता है। इसलिए जब आदि कैलास जाएं तो यह किताब बगल में होना चाहिए।
इसी किताब से पता चला कि स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में कैलास मानसरोवर जाने का हजारों साल से यही परम्परागत मार्ग है। धारचूला तवाघाट ठाड़ीधार और चौदांस इलाके में प्रवेश होता है।
चौदह गांवों से मिलकर बना चौदास के लिए क्या खूब लिखा है यह भूमि शिव की क्रीड़ास्थली रही है और शिव के चौदह डमरूओं के चौदह निनाद ध्वनित होते है।
किताब में चौदास का खूबसूरत विवरण है। वो लिखते है यहां से काफी संख्या में लोग धारचूला पिथौरागढ़ हल्द्वानी व अन्य महानगरों की ओर पलायन कर गए है। लेकिन क्या सड़क मार्ग ने पलायन रोका है इसकी जिज्ञासा मेरे मन में है।
सेब की बनी हल्की मादक चयव्क्ति का जिक्र भी कई बार है शायद कठिन बर्फीले मौसम के कारण स्थानीय लोगो ने इस पेय को ईजाद किया होगा।
कश्मीर के बक्करवाल हिमाचल के गद्दियों की भांति उत्तराखंड के भेड़पालक यानि अणवालों की अद्भुत कहानी इस किताब का रोचक हिस्सा है । पिछड़े समाजों के उत्थान के लिए योजनाएं तो बहुत है लेकिन अणवाल समुदाय का इससे वंचित रह जाना निश्चित ही सामाजिक न्याय की दृष्टि से गम्भीर चिन्ता का विषय है।
एक पथिक जिसको सिर्फ अपनी यात्रा लिखना चाहिए यदि वो समाज के लिए इतना जागरुक होगा तो निश्चित ही उनकी बात आज नहीं तो कल उत्तराखंड सरकार तक पहुंचेगी। उनके लेखन से इस पीड़ा को समझा जा सकता है।
ललित दा लिखते है तिथलाकोट से समरी पहुंच कर हमने खूब खिचड़ी खाई। इस आंचलिक केन्द्र में एक सहज अपनापन मिलता है । ठंडा पानी,चाय, छोले और लोगों में निपट पहाड़ीपन भी।
जब कभी मौसम के चलते ये घुमक्कड़ अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच पाते तब इनके रुकने खाने के लिए सैनिक पड़ाव मदद करते ऐसा कई जगह किताब में विवरण है।एक वाक्य से इसे समझा जा सकता है। ललित दा लिखते है सकून इस बात का है हमारे सैन्य बल के लोग मानवीय संवेदनाएं रखते है और किसी भी सीमा तक जरूरतमंदो की सहायता करते है।
मालपा के विषय में ललित दा लिखते है ब्यांस की ओर जाने वाले या चौदांस की ओर लौटते पथिको का यह विश्राम स्थल था। भोजन जलपान व आवास की ठीकठाक सुविधाएं यहां उपलब्ध थी और थके हारे यात्री इसका सुख भोग करते थे।
लेकिन 18 अगस्त 1998 की मध्यरात्रि थी तेज वर्षा के कारण भू गुरुत्वाकर्षण में असंतुलन से पर्वत शिखर में पड़ी दरारें फैली ओर बहुत बड़े पत्थर का पहाड़ दरका। भारी बोल्डर कंकड़ पत्थरों के विशालकाय मलवे ने मालपा को जमींदोज कर दिया तथा पूरी बसासत को क्षत विक्षत कर मलवा काली नदी के तेज प्रवाह तक पहुंचा और इस हजारों टन मलवे के तले कैलास मानसरोवर के 60 यात्री समेत कुल 210 लोग काल के गाल में समा गये।
अभी जब हम अपनी डॉक्युमेंट्री के लिए मालपा पहुंचे तो पता चला एक यात्री उनमें से जीवित है जिसकी तलाश हमें है।
ललित दा लिखते है प्रकृति का ऐसा विंध्स्व मालपा पड़ाव स्थल अब मानचित्र से गायब है। पूरी घाटी के लोग इस त्रासदी से विक्षिप्ता की अवस्था में मौन थे। एक गहरा दर्द था संताप था पूरे वातावरण में।
बूंदी से गर्ब्यांग के बीच छियालेख के मैदान का जो विवरण लिखा गया है लगता है मोटर मार्ग से जाने पर भी यहां जाना चाहिए। ललित दा लिखते है छियालेख जैसे मनोहारी बुग्याल ही प्राकृतिक रूप से प्रकृति के साथ तादात्म स्थपित कराते है जो हमारे लिए प्रेरणास्रोत है और उन हजारों हजार प्रकृति प्रेमियों शान्ति के खोजियों तीर्थयात्रियों पर्वतारोहियों व पथारोहियों के भी जो हिमालय के दुर्गम अंतर्वर्ती क्षेत्रों में पहुंच उसके सौन्दर्य व नाजुक पारिस्थितिकीय तन्त्र को चिर अक्षुण बनाए रखने की सोच रखते है।
गर्ब्यांग गांव के विषय में इस किताब में जितना बेहतरीन लिखा गया है शायद ही कही ओर लिखा गया होगा। अभी भी 40 परिवार 10/15 फीट बर्फ के बाद भी जीवन यापन के लिए मजबूर है । स्वाभाविक है सड़क मार्ग बनने के बाद सुविधाएं बढी है तो यह दिक्कत अब कम हुई होगी।
गर्ब्यांग से गुंजी गांव आने के बाद नदी तल से 100 गज ऊपर है। पूर्व की और मान्येला का मैदान और ऊंची पहाड़ी में व्यास मन्दिर है स्थानीय लोगों का मानना है महर्षि व्यास इस स्थल पर प्रवास में रहे बाद में इसी घाटी की व्यास गुफा में रहे। इसी का जिक्र मानस खण्ड में है।
काला पानी का हल्ला पिछले कुछ सालों में मीडिया और राजनीतिक चर्चा में रहा है दा लिखते है इस सीमावर्ती क्षेत्र को देखकर विचार उठता है हमारी राजनैतिक विचार दृष्टि के ताने बाने में, हमारी विदेश नीतियों कूट नीतियों की घेराबन्दी में जीवन का बहता यह सतत प्रवाह अवरुद्ध नहीं होना चाहिए। काला पानी विवाद पर दा ने बहुत सुन्दर लिखा है।
पथारोहण के अनुसार लिपुलेख पहले पड़ता है जबकि हम मोटर मार्ग से गए तो पहले गुंजी पड़ता है टी प्वाइंट से दाएं गए तो करीब 1घंटे के उबड़ खाबड़ मार्ग पर चलते ॐ पर्वत पहुंचते है ।
ॐ पर्वत दृश्यावलोकन से बाएं लिपुलेख मोटर मार्ग है जिस पर करीब 40 मिनट बाद कैलास मानसरोवर वाले कैलास पर्वत को साक्षात देखा जा सकता है।
व्यास मन्दिर में दो सांप मिलते है जो हमें देखने को मिले । इससे आगे गुंजी के हरेक पहलु को ललित दा ने विस्तृत लेखनी दी है।
गुंजी से कुटी के बीच गांव नाबी का अद्भुत विवरण दिया गया है उन्होंने कालीन बुनाई का विवरण ऐसा दिया है पढ़ते हुए महसूस करेंगे आप खुद उस बुनाई का हिस्सा है। इसी क्रम में अमृता प्रीतम के लेख को तारतम्यता दी है।
नाबी गांव से एक कठिन दर्रे के द्वारा बुदी पहुंचा जा सकता है। किताब की खुबसूरती है सीधे चलते हुए अचानक ऐसा यू टर्न लेते है दा कि किताब रहस्यमय हो जाती है। किस्से कहानियों चढ़ाव उतराव के बीच में हांफते हुए व्यक्ति अपनी सांसों को व्यवस्थित करेगा या ऐसे में भी कहानी पिरोएगा।
हर हिस्से में प्रकृति के विवरण को पढ़कर आमतौर पर बोरियत होती है लेकिन इस किताब में ऐसा कोई स्कोप है नहीं। आप सोच रहे होंगे जब कोई समीक्षा लिखी जाती है तो कमियां भी तो लिखी जाती है।
तो मैं कमियां भी लिख देता हूं यह किताब किसी डिजिटल प्लेटफार्म पर उपलब्ध नहीं है इतनी बेहतरीन किताब का लोगो के लिए उपलब्ध न होना इस किताब की सबसे बड़ी खामी है। इसकी शिकायत मैंने की है। यह किताब ऐसी है कि जो भी आदि कैलास जाए यदि उसको उपलब्ध हो तो मोटर मार्ग में पड़ने वाले गांवों में भी वो जरूर जायेगा। उन गांवों को समृद्ध करेगा।
सरल पहाड़ी लोग जब कुछ कहो जैसे दा ने कहा अरे हरीश सब ठीक ही ठहरा। करते है कुछ, जो किताब किसी बड़े पब्लिकेशन हाउस से आराम से प्रकाशित हो सकती थी हो सकती है उसे दा ने अपने प्रयासों से प्रकाशित कर दी और इतने भर से उत्तराखण्ड सरकार ने उन्हे उत्तराखण्ड गौरव सम्मान से सम्मानित किया।
अब मैं उनकी इस अद्भुत किताब को किसी बड़े पब्लिकेशन हाउस से प्रकाशित कराने का संकल्प लिया हूं ।
अब आगे --
कुटी की शान्ति कुटियाल जिन्होंने संकल्प लिया कि अपने जीते जी ज्योलिकांग पार्वती सरोवर छोटा कैलास को एक धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में स्थापित करके रहेंगी।जो मन्दिर पार्वती सरोवर पर स्थित है उसका निर्माण उन्होंने ही गांव की अन्य महिलाओ के सहयोग से 1972 में स्थापित कराया था।
मुझे नहीं पता शान्ति कुटियाल है या नहीं यदि है तो उन्हें खुशी होगी कि उनकी इच्छा पूर्ण हुई। प्रधानमंत्री मोदी के आदि कैलास आने के बाद उनके इस धार्मिक पर्यटकों की संख्या लाखों में पहुंच चुकी है।
कुटी का पाण्डव किला कुन्ती शीला उसकी कहानियां जानने के लिए किताब पढ़िए किताब लेकर कुटी की यात्रा करे जो अब मई में शुरू होगी। ज्या पीजिए या च्यक्ती उसकी पूरी कहानी किताब से मिलेगी। प्राचीन निकर्चु व्यापारिक मंडी का इतिहास मिलेगा।
पार्वती ताल आदि कैलास की बात करते करते 1964 की मंगस्याधुरा की सच्ची कहानी अद्भुत है। मंगस्याधुरा टॉप से कैलास मानसरोवर दर्शन का किस्सा पढ़ते आश्चर्य मिश्रित रोंगटे खड़े हो जाते है। किसे पता था 1964 का वो किस्सा 2024 में वास्तव में सच हो जायेगा।किताब को पढ़ते संजोते नोट्स बनाते एक आवाज आई ललित दा से शिकायत रहती थी हमेशा उनसे कहता था दा आपके पास इतना कुछ देने को है आप देरी क्यों कर रहे है हमेशा लगता रहा वो आलसी है या उम्र और पारिवारिक विपदाओं का असर उन्हें दरका रहा है । लेकिन इस किताब को पढ़ने के बाद इतना निश्चित है ये कालजई लेखन है ।
कोई एक किताब कैसे किसी को अमर कर सकती है वो परिश्रम इसमें दिखाई देता है। अभी भी उनके पास कम से कम 25 किताबों का भण्डार संजोया हुआ है। लेकिन अब कोई शिकायत नहीं। अपने कहे की माफी। इस तरह के लेखन परिश्रम का मैं तो सिर्फ सपना ही देख सकता हूं।
मुझे याद आता है पत्नी मीनाक्षी और बेटी ईहा के साथ पहली बार पिथौरागढ़ गए तो दोनों को कुछ भी प्रभावित नहीं कर पाया लेकिन ललित दा के यहां बिताया बतियाया समय उन्हे आज भी याद है और उसे ही दोनों पिथौरागढ़ की उपलब्धि मानती है।
1950 दशक का जो विवरण किताब में है वो तिब्बत चीन भारत सम्बन्धों धंधों पर व्यापक प्रकाश डालती है। साथ ही भारतीय सीमांत प्रहरियों का अद्भुत संग साथ किस्से बेहद रुचिकर और शिष्टता लिए हुए है।
इस यात्रा के सबसे कठिन मार्ग सिनला दर्रे को पार करना सबसे चुनौती पूर्ण था। पांच पथारोहियों की अद्भुत कहानी उनकी जिजीविषा हिम्मत, डगर दिमाग शरीर का सन्तुलन एक दूसरे के प्रति मान सम्मान स्नेह ही वो वजह थी जिनसे वो सफल हुए। मैं कई कठिन यात्राओं का पथारोही रहा हूं ।
कई बार सरल राहों में भी एक गलत कदम आपको हजारों फिट गहरी खाई में पहुंचा सकता है। ऐसे में कोई राह ही न हो तो जोखिम को मै समझ सकता हूं, शेखर पाठक दा का पथनायक होना किसी भी कठिन जोखिमों से भरी यात्रा को सरल और साहस पैदा करता है किताब को पढ़ते हुए समझा जा सकता है।
किताब में सिनला दर्रे के आरपार की यात्रा सिहरन पैदा करती है वो लिखते है लगभग 11 बजे हम अन्ततः अथक जीवन शक्ति लगा सिनला गिरिद्वार में पहुंच गए। भीषण थकान सबके चेहरे पर अवश्य थी लेकिन समुद्र तल से18030 फिट की ऊंचाई पर पहुंचने की अनोखी चमक भी सबकी आंखों में थी। शेखर ने स्वागत में हाथ फैलाया और गहरी जादू की झप्पी दी। यह हमारी यात्रा का उच्चतम बिन्दु था।
यात्रा का अन्त हुआ और तवाघाट से शुरू हुई यात्रा यहीं खत्म हुई लेकिन तब तक इतना कुछ मानसपटल पर अमिट हो चुका था कि दा से आज भी बात करो तो वो जीवन्त हो उठते है एक बच्चे के माफिक। वो इस या किसी भी यात्रा पर घंटों बात कर सकते है और विशेषता ये कि हर बार वो ही बात आपको खास ही लगेगी।
यह समीक्षा सिर्फ किताब की पहली यात्रा की है दो यात्राएं अभी बाकी है वो भी शीघ्र अभी तो कैलास मानसरोवर घूमिए।
हरीश शर्मा
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