Last 20 years I was in entertainment PR, but that I had close down on 20 Nov 2016, now a full-time writer and film director, at the age of 56 taking the risk to change the track are not ingenious, but without the struggle, a tough task, challenges, I never enjoyed from starting of my professional life. Two books "I am not Guilty - Kasab" is published, and 2nd is "20 years of Entertainment PR" will release in 2020.
Tuesday, December 22, 2020
गहने जमानत पर रख कर बनी थी भारत की पहली फ़िल्म - "राजा हरिश्चन्द्र"
Sunday, December 6, 2020
फ़िल्म नगरी यूपी में, मुख्यमंत्री योगी जी को खुला पत्र
फ़िल्म नगरी यूपी में,
मुख्यमंत्री योगी जी को खुला पत्र
माननीय मुख्यमंत्री जी आप उत्तर प्रदेश में फ़िल्म नगरी बनाने की एक और कोशिश कर रहे है । 1988 में भी तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह जी ने भी कोशिश की थी।
वैसे मैं कौन होता हूँ आपको कुछ भी लिखने वाला लेकिन सिर्फ एक आम नागरिक की हैसियत से जो सही लगा वो लिख रहा हूँ। फ़िल्म उद्योग में पिछले 25 वर्षो से हूँ। बरेली में जन्मा पला बड़ा लखनऊ में खेला सो UP के लिये दिल बोलता है।
1992 में जब पिथौरागढ़ से दिल्ली आया तो कुछ समय नोएडा फ़िल्म नगरी में काम किया था वो अनुभव भी है। आपने फ़िल्म नगरी बनाने के लिए पहली ही meeting में कुछ फ़िल्म हस्तियों को बुलाया यह बहुत अच्छी बात है वो सब अपने क्षेत्रों में सफल है लेकिन फ़िल्म नगरी में उनका योगदान क्या होगा मुझे पता नही। फिर आप मुम्बई गये एक बार पुनः मिले उन लोगो से जो स्टार है या फ़िल्म बनाते है UP में भी बनाई है। आगे भी बनाते रहेंगे। लेकिन UP की फ़िल्म नगरी बनाने में इनका क्या योगदान होगा आप बेहतर जानते है ।
यदि आप नोएडा फिल्म नगरी बनाने वाली गलती फिर से तो नही करने जा रहे। पहले की तरह फ़िल्म नगरी बनाने के नाम पर कुछ नामचीन लोगो को रेवड़ियों के भाव में प्लाट बाटे गये। एक नियम के तहत कि इतने सालों में आप स्टूडियो बनायेंगे और स्टूडियो बनाने के बाद इतने सालों बाद ही बेच सकते है 99% लोगो ने नियम का पालन किया और करोड़ो में कुछ लाख में मिली जमीन को बेच दिया। जिस लक्ष्मी स्टुडियो में मैं काम करता था उसे टी सीरीज ने खरीद लिया।
मारवाह स्टूडियो और शायद सुरेन्द्र कपूर स्टूडियो सन्दीप मारवाह चलाते है उन्होंने सही समय पर एक्टिंग स्कूल खोलकर कम से कम सस्ते में मिले प्लाट और फ़िल्म नगरी का कुछ तो मान रख लिया। गनीमत यह रही कि नोयडा फ़िल्म नगरी के फ़िल्म स्टूडियो खरीदने वाले अधिकतर लोग न्यूज़ चैनल चलाते है।
यह सही है कि स्टूडियो मालिको के पास अपने स्टूडियो बेचने के अलावा कोई चारा भी नही था। फिल्मों की टीवी सीरियल की बमुश्किल 1% शूटिंग यहाँ हुई होगी। क्यों कोई सारा ताम झाम लेकर आता और यहाँ शूटिंग करता उसे सिवाय नुकसान के कुछ हांसिल नही होता। दिग्गज LV Prasad की स्टूडियो लेब थी फ़िल्म सिटी में उन्होंने शायद यह सोचकर खोली होगी कि दक्षिण भारत की फिल्मों का काम तो उन्हें वही मिल जाता है नोयडा में खोलकर मुम्बई फ़िल्म नगरी का काम मिलने लगेगा या नियमता भी लेब बनाने की मजबूरी रही हो।
1992/92 जब मैं उस स्टूडियो में जाता था तो एक काम बड़ी शिद्दत से होता था आप कहेंगे दक्षिण की फिल्में आती होगी वहाँ, जी नही प्रसाद स्टूडियो ने दो बहुत खूबसूरत पार्क बनाये थे बस सुबह शाम उनमें पानी दिया जाता था बहुत ही सुन्दर सुन्दर फूल लगे थे वहाँ। तीन चार माली थे एक मैनेजर।
अन्य स्टूडियो में कोई हो न हो मैनेजर जरूर होता था। खैर हम मुद्दे से भटके उससे पहले वापस मुद्दे पर आते है। नोएडा फ़िल्म नगरी के फ्लॉप होने की मुख्य वजह थी infrastructure की। न कैमरे थे ना light थी ना इन्हें चलाने वाले लोग थे यदि थे तो उन्हें फिल्मों का अनुभव नही था कोई हिम्मत जुटाकर फ़िल्म शूटिंग का जोखिम लेता भी था तो सारे technicians मुम्बई से ही साथ लाने पड़ते थे यहाँ तक की खाना बनाने वाले भी क्योंकि उन्हें पता होता था कब कैसे क्या बनाना, देना होता है।
मुख्यमंत्री महोदय आपके पास ज्ञान देने के लिए एक से एक दिग्गज होंगे। किसी ने आपको यह सलाह नही दी कि मान्यवर मुम्बई जाने की आवश्यकता नही है हम रामोजी राव फ़िल्म सिटी हैदराबाद चलते है। हो सकता है आपका प्लान हो वहाँ जाने का यदि हो तो दो दिन का प्लान बनाकर जाइयेगा तभी आपको अंदाज़ा लगेगा कि आपकी फ़िल्म नगरी उससे बेहतर कैसे बने।
एक दिन में तो आप अपनी कार से भी घूमेंगे तो भी आप रामोजी राव पूरा नही देख समझ पायेंगे। आपको लग रहा होगा मैं रामोजी राव का पीआर तो नही कर रहा हूँ जी नही मैं वहाँ दो बार ही गया हूँ लेकिन फिल्मों से जुड़ा होने के कारण यह कह सकता हूँ किसी को कोई फ़िल्म बनानी हो तो वो अपने स्टार लेकर वहाँ आये और जब वापस जाये तो आपको सिर्फ फ़िल्म रिलीज करनी है।
एक ही जगह पर जब आपको हर चीज मुहैया हो तो आसानी तो हो ही जाती है। वैसे भी हैदराबाद फ़िल्म उद्योग बहुत व्यवस्थित है जिसका लाभ भी यहाँ शूटिंग करने वालो को मिलता है । रामोजी राव ने खुद को उत्कृष्ट पर्यटन स्थल भी बना दिया है वहाँ पर्यटकों के लिए बहुत से विकल्प है मनोरंजन के लिये। लोग तो इसी बात से खुश हो जाते है कि शाहरुख खान ने फलाँ फ़िल्म के लिये यहाँ शूटिंग की थी या नसीरूद्दीन और विद्या बालन की फ़िल्म डर्टी पिक्चर के गाने की शूटिंग इस पार्क में हुई थी और यह सभी शूटिंग वाली जगह आप उनकी चलती बस से देख रहे होते है।
जब हम गये तो बस ने हमें बाहुबली के सेट पर छोड़ दिया फ़िल्म के सेट को तोड़ा नही गया था। वहाँ फ़िल्म से जुड़े तमाम कटआउट रखे थे बहुत सी शूटिंग वाले द्रश्य सेट भी छोड़ दिये गये थे उनको देखकर और फ़ोटो खींच और खिंचवा कर सब इतने खुश थे जैसे हम फ़िल्म का हिस्सा हो। हालाँकि मैं बतौर पर्यटक रामोजी राव में देखे जाने वाले विषयों से बहुत प्रभावित नही था लेकिन एक आम पर्यटक के लिए वहाँ बहुत कुछ है। मेरे लिए तो सबसे अच्छी जगह उनका रेस्टोरेंट था जिसका खाना लाज़वाब था ।
मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूँ मुख्यमंत्री महोदय जिससे आपको अंदाजा हो कि सिर्फ फ़िल्म नगरी बनाने से काम नही चलने वाला revenue भी तो आना चाहिए। आपको हमारी फ़िल्म नगरी को सफल बनाने के लिए रामोजी राव से सलाह लेनी चाहिए हॉलीवुड स्टूडियो देखने जाना चाहिए। ऐसी एजेंसियों को sign करना चाहिए जिनका अगले 50 वर्षो में फ़िल्म और ओटीटी या अन्य कैसे बदलाव आयेंगे उनपर कुछ vision हो।
तेजी से बदलते समय के बदलाव को देखते हुए सबसे जरूरी जरूरत है विश्वस्तरीय editing स्टूडियो बनाने की। मुझे ऐसा लगता है आने वाले 50 वर्षों में सर्वश्रेष्ठ फिल्में कम्प्यूटर या उससे भी अधिक उसी तरह की आने वाली तकनीक पर बनेंगी। आज भी 60/70% फिल्में ग्राफिक्स पर ही बनती है।
यह ठीक है कि आने वाले 8/10 वर्ष नेटफ्लिक्स अमेजन यानि OTT जैसे प्लेटफार्म का रहेगा और उसके बाद कुछ नई तकनीक देखने के लिए कुछ नए तरीके ईजाद किये जायेंगे। इसलिए बहुत बड़े स्टूडियो की जरूरत भविष्य में न पड़े लेकिन ग्राफिक्स और editing स्टूडियो इतने सुसज्जित होने चाहिए कि उनमें बदलाव सम्भव हो।
जो भी स्टूडियो बनाये वो ग्रीन कवर हो जैसे किसी ने मुझे बताया कि लॉर्ड्स का मैदान ऐसा है कि कही भी खड़े हो कर बैटिंग करो वो पिच अपने आप बन जायेगी।
आप हमारी फ़िल्म नगरी में आधुनिक lights आधुनिक कैमरे व अन्य आधुनिक equipments की सहूलियत उपलब्ध करवाये ऐसी व्यवस्था करे कि फ़िल्म या OTT का जो भी निर्माता आये वो सिर्फ अपने कलाकार लेकर आये और जब जाये तो उसे सिर्फ release करने भर की मशक्कत करना बाकी रह जाये।
हमारी फ़िल्म नगरी में सबसे अधिक शुरुआती दिक्कत technicians की आयेगी चाहे हम फ़िल्म बनाये या OTT material, हमें उनके लिए मुम्बई पर आश्रित रहना पड़ेगा। उसका solution थोड़ा लम्बा है लेकिन विकल्प यही है। हमें विश्वविद्यालय की जरूरत नही है बल्कि 10वीं/ 12वीं क्लास तक के छात्रों के लिए 3 - 6 - 9 और 12 महीने के short courses की जरूरत है सिर्फ practical course No theory,साथ ही जो भी शूटिंग हो उसमे उन्हें अनुभव सीखने का मौका मिलना चाहिए, साथ ही उन विद्यार्थियों को यह सुविधा भी मिलनी चाहिये कि यदि कोई नई तकनीक आये वो उन्हें सीखने को फ्री में मिलनी चाहिये। जिससे उनका आधुनिकता के साथ तारतम्य बना रहे।
इसके अतिरिक्त सबसे जरूरी है रहने के लिए फाइव स्टार थ्री स्टार और स्टार रहित होटलों की वो भी फ़िल्म नगरी के अंदर ही। लग्जरी कार और लग्जरी बसों की सुविधा भी बहुत जरूरी है। जिससे फ़िल्म सितारे और शूटिंग स्टाफ के आने जाने के समय की बचत हो। आखिरकार समय की ही तो कीमत है।
हरेक फ़िल्म के शूटिंग स्टाफ का life insurance compulsory हो, एक हस्पताल हो बेसिक सुविधाओं से युक्त और फ़िल्म नगरी के पास ही किसी बड़े हॉस्पिटल से करार हो जिससे सुविधाएं तुरन्त मुहैया हो सके।
पर्यटन स्थल के रूप में फ़िल्म नगरी में आधुनिक आकर्षण जोड़े जाये जिनका संबन्ध फिल्मों से ही हो, और सबसे बड़ी बात पर्यटन किसी के लिए भी free न हो चाहे कोई अधिकारी या नेता का परिवार हो वरना इण्डियन एयर लाइन्स बनने में ज्यादा समय नही लगेगा।
मुख्यमंत्री महोदय फ़िल्म नगरी को सफल बनाने के लिए किसी फिल्म स्टार फ़िल्म सेलिब्रिटी या फ़िल्म निर्माता की आपको जरूरत नही है आप सुविधाएं ऐसी दीजिये कि फ़िल्म के लोग मजबूर हो जाये आपकी फ़िल्म नगरी में शूटिंग के लिये। रामोजी राव से अच्छा उदाहरण और क्या मिलेगा हमें। किसी को भी किसी भी तरह का स्टूडियो बनाने के लिए जगह मत बाँटियेगा यदि आपने ऐसा किया तो दूसरी नोयडा फ़िल्म सिटी जैसा हश्र होने से कोई नही रोक सकता।
उत्तर प्रदेश में फिल्मों की शूटिंग और पैसा--
बात हो ही रही है तो लगे हाथों मैं उत्तर प्रदेश में होने वाली फिल्मों को जो रेवड़ी आप बाँट रहे है उस पर भी कर लेता हूँ। आपकी यानि फ़िल्म बन्धु की पहली शर्त होती है जिस फ़िल्म की शूटिंग आपके यहाँ हो उसके अनुसार उसे आर्थिक सुविधा दी जाती है उसके अलावा UP में आप फ़िल्म को टैक्स फ्री भी कर देते है कभी कभी,
मेरे विचार से हमारे प्रदेश में सबसे पहली priority कहानी होनी चाहिये आप 2 करोड़ रुपये किसी ऐसी फिल्म को देते है जो उत्तर प्रदेश के किसी शहर को गुंडों आतंकवादियों का अड्डा बना दिखाते है। आप कह सकते है यह हकीकत है लेकिन हकीकत के लिए सरकार दो करोड़ देती है क्या।
हम ऐसी कहानियों का चुनाव कर सकते है जो हमारे शहरों और प्रदेश के लिए सार्थक हो। क्या हमारे प्रदेश में ऐसे लोग नही हुए है जिन्होंने देश या विश्व मे अपना नाम रोशन न किया हो। गुंडों आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली फिल्मों की बजाय हम किसी ऐसे खिलाड़ी पर फ़िल्म नही बना सकते जिसने प्रदेश का नाम रोशन किया हो फिर उस फिल्म को चाहे अधिक ही पैसा क्यों न देना पड़े।
अवधि, ब्रज, बुंदेली और भोजपुरी फिल्मों को बढ़ावा देना अच्छी बात है लेकिन उसके लिए फ़िल्म अच्छी और सार्थक हो तो बेहतर है यदि सरकार किसी ऐसी प्रादेशिक भाषा की फ़िल्म को पैसा देती है जैसी हर तीसरी फिल्म बन रही है तो हम इन प्रादेशिक भाषा की फिल्मों को बढ़ावा नही दे रहे बल्कि सिर्फ पैसा दे रहे जिसका कोई औचित्य नही है।
हम पर्यटन को बढ़ावा देने के अनुसार भी फिल्मों का निर्माण करवा सकते है उदाहरण के तौर पर गढ़ गंगा एक ऐसा क्षेत्र है जिसे सरकार पर्यटन स्थल के तौर पर स्थापित कर सकती है। फिल्मों और OTT प्लेटफार्म के लिए इस क्षेत्र को ध्यान में रखकर कहानी लिखी जा सकती है फ़िल्म बनाई जा सकती है। ऐसा ही उन क्षेत्रो को ध्यान में रख कर किया जा सकता है जिन्हें पर्यटन के तौर पर उभारना हो।
बरेली की बर्फी जैसी मनोरंजक फिल्मों को बढ़ावा मिलना चाहिये हर शहर की अपनी एक कहानी होती है उसमें कुछ ऐसी विशेषताये होती है जिन्हें कहानी में पिरोया जा सकता है। हो सकता है इस तरह की कोशिशों में शुरू में समय अधिक लगे लेकिन इन फिल्मों का result बेहतर होगा ऐसी संभावना अधिक है और प्रदेश की जनता का जो पैसा सरकार निर्माताओं को देती है उसकी सार्थकता भी होगी।
मुख्यमंत्री महोदय मुझे पता है आपके पास या किसी के पास भी इतना समय नही होगा जो इतना लम्बा खुला पत्र पढ़े लेकिन मुझे जो लिखना था वो तो मैं लिखी ही सकता हूँ। कोई पढ़े या न पढ़े।
हरीश शर्मा
गोवा से
Thursday, December 3, 2020
फ़िल्म पीआर के पितामह चाचा ओमप्रकाश कत्याल
ओम प्रकाश कत्याल चाचा
फ़िल्म पीआर में अग्रणीय नाम
एक ऐसा नाम है जिनका जिक्र किये बिना मेरी किताब अधूरी होगी। दिल्ली में फिल्मों के इनसाक्लोपीडिया थे कत्याल साहब यानि जगत चाचा, सब उन्हें चाचा कह कर बुलाते थे। फ़िल्म इतिहास की कोई भी जानकारी उनकी जुबान पर रहती थी। मीडिया के लोग अपने किसी लेख में फंसते थे तो चाचा को फोन करते थे।
दिल्ली और उत्तर भारत के सबसे बड़े पीआरओ वही थे। मेरी उनसे पहली मुलाकात शायद होटल मौर्या दिल्ली में हुई थी 1993 अप्रैल में, मुझे पिथौरागढ़ से आये कुछ ही समय हुआ था। नोएडा फ़िल्म सिटी में नोकरी के चलते अनिल कपूर के जीजा संदीप मारवाह से मुलाकात होती रहती थी।
उन्होंने ही मुझे फ़िल्म रूप की रानी चोरो का राजा की प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिये बुलाया था। फाइव स्टार होटल, फ़िल्म स्टार्स यह सब बरेली और पिथौरागढ़ जैसे शहर से आये लड़के के लिए सपने जैसा था। मुझे याद है जब मैं दिल्ली आया था तो मन किया फाइव स्टार होटल कैसा होता है उसे देख जाये।
अख़बार के दैनिक सूची में देखा हयात होटल में पेन्टिंग प्रदर्शनी लगी थी जहाँ जाना फ्री था सोचा इसके बहाने फाइव स्टार देख लिया जाये। जब वहाँ गया तो पता चला हयात के जिस हॉल में प्रदर्शनी लगी थी उसका रास्ता होटल के अंदर से नही सड़क से ही था लिहाज़ा फाइव स्टार देखने का सपना पूरा किया सन्दीप मारवाह ने।
तो बात रूप की रानी चोरों का राजा की चल रही थी। प्रेस वार्ता में बमुश्किल 50 पत्रकार होंगे जिसमें मैं अकेला ऐसा पत्रकार था जो सिर्फ सन्दीप मारवाह को जानता था। उस दिन मैंने अनिल कपूर,बोनी कपूर, बाबा आजमी, जावेद अख्तर, सुरेन्द्र कपूर और सतीश कौशिक को देखा उनकी बातें सुनी कुछ समझ आयी कुछ बाउंसर हो गई।
अजीब लगा जब बात फ़िल्म की हुई तो बताया गया यह अभी तक की सबसे महँगी फिल्मों में से एक है 9.2 करोड़ की, इससे पहले फ़िल्म अजूबा सबसे महँगी थी 8 करोड़ की जिसने बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नही माँगा था। उस समय 1 से 2 करोड़ की फिल्में बनती थी।
रूप की रानी की प्रेस वार्ता में जो बात मुझे बहुत अखरी कि 50 में से करीब 45 पत्रकार हिन्दी के थे जिसमें से सिर्फ एक या दो पत्रकारों ने एक एक प्रश्न पूछा बाकि पूरी प्रेस कांफ्रेंस में अंग्रेजी के पत्रकार ही गिटपिट करते रहे। इसके बाद मैंने यह निश्चय किया कि किसी भी प्रेस वार्ता में सबसे पहला और कई प्रश्न हिन्दी में मैं पूछा करूँगा और मुझे खुशी है कि मैंने पत्रकार रहते अपनी यह जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाई यही नही पीआर के दौरान भी हिन्दी पत्रकारों को खूब बढ़ावा दिया।
ऐसा नही है कि मुझे अंग्रेजी या अंग्रेजी पत्रकारों से कोई गुरेज हो लेकिन मुझे लगता था हिन्दी पत्रकारों में कुछ संकोच होता था वो भी सिर्फ पहले प्रश्न पूछने का, उसके बाद तो यह बहुत खतरनाक हो जाते है जिनको संयमित रखना आसान नही था।
तो बात चाचा की चल रही थी। जब हम मौर्य होटल में थे तो मीडिया के सभी पत्रकार चाचा के बुलाये हुए थे मैं अकेला अलग थलग, चाचा को लगा यह लड़का बिना बुलाया मेहमान है वो मुझे प्रश्नवाचक बन कर घूर रहे थे। क्योंकि जो भी आता वो चाचा से मिलता चाचा अपने प्लास्टिक के बैग से फ़िल्म का ब्रोशर निकाल कर देते और किस जगह प्रेस वार्ता है बताते।
मैं अभी सोंच ही रहा था क्या करूँ तभी सामने से आते सन्दीप मारवाह दिख गये उन्होंने मुझे देख लिया फिर चाचा से मिलवाया यह हरीश शर्मा है नोयडा के पत्रकार है। चाचा ने अजीब सा मुँह बनाया कि मेरे बिना बुलाये कैसे कोई पत्रकार आ सकता है लेकिन सन्दीप मुझे अपने साथ अन्दर ले गये।
मेरी पहली ग्लैमरस प्रेस कॉन्फ्रेंस थी तो उस समय की बहुत सी यादें है। मैं सबसे पीछे की सीट पर बैठा था हॉल छोटा सा था एक स्क्रीन भी थी जिस पर गाने दिखाये गये थे। अनिल कपूर का एक उत्तर आज भी याद है एक महिला पत्रकार ने पूछा था कि आप इस मुकाम पर है कि आर्ट फिल्में भी कर सकते है तो सिर्फ कमर्शियल फिल्में ही क्यों कर रहे है ?
अनिल ने कहा मुझे एक ही परिभाषा पता है अच्छी फिल्म या बुरी फ़िल्म। मुझे जो भूमिका पसंद आती है वो मैं करता हूँ। फिर अनिल ने एक प्रश्न उस पत्रकार से ही पूछ लिया ईश्वर को आप कैसी फ़िल्म मानती है ?
उस पत्रकार ने कहा ईश्वर तो मीडिल लाइन फ़िल्म थी अनिल बोले बस मुझे ऐसी ही मीडिल लाइन फिल्में पसन्द है तभी एक अन्य पत्रकार ने पूछा 1942 लवस्टोरी को क्या मानते है ?
अनिल कपूर का जवाब था विदु विनोद चोपड़ा तो इसे पूर्णतया कमर्शियल फ़िल्म कहते है लेकिन मैं इसे मिडिल लाइन फ़िल्म मानता हूँ।
मुझे पहली बार पता चला कि कला और व्यावसायिक फिल्मों के अलावा एक और तरीके की फ़िल्म होती है मध्य पंक्तियों की फ़िल्म हालांकि मैंने अपने 20 वर्षो के फिल्मी जीवन में यह मीडिल लाइन फिल्मों की चर्चा बहुत अधिक नही सुनी।
रूप की रानी जब रिलीज हुई तो मुझे फिर सन्दीप मारवाह ने प्रेस शो के लिये बुलाया उस सिनेमाघर में चाचा के बुलाये ही पत्रकार आये हुए थे। इस बार मैं चाचा के पास गया वो बोले तू फिर आ गया चल ले टिकट अंदर बैठ कभी ऑफिस में आकर मिल।
वैसे भी चाचा टिकट देने के मामले में उदार थे कई पत्रकार तो बीबी बच्चों सहित आ जाते थे लेकिन कभी उन्होंने किसी को न नही कहा। ये बातें मुझे उन्हें सही से जानने के बाद बाद में पता चली थी।
रूप की रानी देखी फ़िल्म के बारे में तो क्या कहूँ 3 घण्टे 10 मिनट की फ़िल्म ने पका दिया था । निकलते गेट के बाहर ही चाचा खड़े थे सबसे पूछते हाँ भई कैसी लगी सभी पत्रकार सिर झुकाये कहते हुए निकल जाते बहुत अच्छी।
मेरा नम्बर आया तो मैंने कहा समोसे और कोल्डड्रिंक बहुत अच्छी थी चाचा, मैं ऑफिस में मिलता हूँ। उस फिल्म को देखने के बाद पता चला यार यह तो बहुत अच्छा है कोई भी फ़िल्म हो पहला दिन पहला शो देखो इंटरवेल में दो समोसे कोल्डड्रिंक या चाय पियो न टिकट की लाइन का झंझट न हाउसफुल की चिन्ता। और यदि शो
रूप की रानी ने 2.70 करोड़ का धन्धा किया। असफलता का ठीकरा आधी फ़िल्म के निर्देशक सतीश कौशिक पर फोड़ा गया। आधी इसलिए कि पहले इस फ़िल्म के निर्देशक इसी टीम को सुपरहिट फिल्म मि इंडिया दे चुके शेखर कपूर थे लेकिन ये फ़िल्म उन्होंने अधर में छोड़ दी तो शेखर के सहायक रहे और अनिल कपूर के दोस्त सतीश ने यह जिम्मेदारी ली।
चाचा से उनके ऑफिस में मुलाकात हुई । चाँदनी चौक में एक थोक के बाजार में कोई 10 सीढ़ी चढ़कर उनका ऑफिस था।
उनके ऑफिस के सामने दिल्ली के बड़े फिल्म वितरक बॉबी आर्ट का आफिस था। चाचा ने पहले अपना आफिस दिखाया बताया इसका किराया है 150 रुपये फिर वो रुके बोले 150 रुपये साल।
उनकी एक अलमारी थी जिसमें वो हमेशा ताला लगाकर रखते थे म्यूजिक कैसेट का जमाना था म्यूज़िक कम्पनी म्यूज़िक समीक्षा के लिये कैसेट देती थी उसी खजाने को चाचा आलमारी में रखते थे।
उस दिन चाचा ने काफी पिलायी, परिवार के विषय मे पूछा । उस दिन चाचा ने मुझे झोली भरकर म्यूज़िक कैसेट दिए और ढ़ेर सारे फिल्मों के फोटो । चाचा का मुख्य काम अखबारों में फ़िल्म के विज्ञापन छपवाने का था साथ ही फिल्मो के पीआरओ हो गये थे। 80 और 90 दशक के वो सबसे बड़े पीआरओ थे इसमें कोई अतिश्योक्ति नही थी।
थोड़ा ज्यादा पीछे जाये तो पता चला चाचा का जन्म 1936 में पाकिस्तान में हुआ था। अपने परिवार के साथ बँटवारे के समय लाहौर से 195 किमी दूर झंग नामक जगह से लुधियाना पहुँचे जहाँ काफी संघर्ष किया दुकानों में झाड़ू पोछा तक लगाया।
बेहतर भविष्य की तलाश में दिल्ली आ गये। उस समय दिल्ली के मल्कागंज में भी पाकिस्तान से आये लोगो को मकान दिए गये थे। कुछ समय रहने के बाद माहौल अच्छा न होने के चलते परिवार आजादपुर मंडी में आकर किराए के मकान में रहने लगे। उस समय वो इलाका जंगल ही था। दिल्ली में ही उनकी शादी हुई।
चाचा ने प्रसिद्ध फ़िल्म पत्रिका रंगभूमि में 100 रुपये महीने की कुछ समय तक नोकरी की फिर अपनी मौसी के लड़के एस एस मुनव्वर जो फ़िल्म वितरक और पीआरओ थे के साथ काम करने लगे।
एक सड़क दुर्घटना में मुनव्वर साहब का इंतकाल हो गया। चाचा भी उसी कार में थे दो महीने तक घर में रहकर इलाज कराते रहे।
उस समय तक चाचा विज्ञापन और पीआरओ का काम काफी हद तक सीख गये थे। एक समय ऐसा भी आया कि 75% फिल्मों के विज्ञापन और पीआरओ का काम वही करते थे । चाचा ने करीब 3/400 फिल्मों का काम किया होगा।
अपनी मदद के लिए उन्होंने एक प्रतिभाशाली युवक राजकमल को अपने साथ रख लिया जिन्होंने बाद में फ़िल्म अखबार मिनी फ़िल्म रिपोर्टर निकाला।
चाचा ने अपने भाई के बेटे आनन्द को गोद लिया और उसे काम सिखाया। आनन्द ने बताया एक तो मैं पढ़ाई में अच्छा नही था ऊपर से हरेक फ़िल्म देखने को और खाने पीने को मिलने लगा तो मैं फिल्मों का ही होकर रह गया।
आनन्द ने बताया चाचा ने इज्जत और पैसा खूब कमाया यही वजह है कि आज काम करने का अंदाज़ बदलने के बावजूद यशराज का काम अभी भी हमारे पास है और यह यशराज फिल्म्स का बड़प्पन है कि फ़िल्म उद्योग में इतने बड़े मुकाम पर होने के बाद भी आज वो हमारे साथ है और रहेंगे।
मेरी जब चाचा से मुलाकात हुई उस समय चाचा की उम्र करीब 60/62 वर्ष होगी। आवाज उनकी कड़क थी उससे कभी कभी लगता था वो कड़वा बोलने वाले है लेकिन कुछ मुलाकातों के बाद पता चला वो ऊपर से कड़क अंदर से नरम है।
जल्दी ही मेरी उनसे अच्छी पटने लगी। मैं उनके हरेक फिल्मी कार्यक्रम का हिस्सा हो गया। हालाँकि यह बात बहुत से पुराने पत्रकारों को हजम नही हुई। लेकिन इससे उन्हें या मुझे कोई फर्क नही पड़ा। उनकी अनुभवी आखों ने पढ़ लिया था यह लड़का कुछ करेगा।
प्रतिभाशाली पत्रकार उनके यहाँ लगातार बैठकी लगाते थे ख़ासकर बृहस्पतिवार को क्योंकि शुक्रवार को फ़िल्म के शो होते थे उसके टिकट चाचा गुरुवार को भी दे देते थे जो उनके दरबार में आता था लिफाफे भी मिलते थे लिफाफों की बात किसी अन्य पेज पर।
जो पत्रकार चाचा के पास लगातार आते थे उनमें दो नाम तो मुझे याद है चंद्रमोहन शर्मा जो वीर अर्जुन में थे आज नवभारत टाइम्स में है उनको फिल्मों की सटीक समीक्षा के लिए जाना जाता है और रवि पाण्डेय सान्ध्य टाइम्स में थे, यह उस समय की ऐसी जोड़ी थी जिसे आप शोले के जय वीरू भी कह सकते है। एक को ढूंढ लो तो दूसरा खुद ही मिल जाये। चन्द्र और रवि जब कही नही मिलते थे इसका मतलब वो चाचा के यहाँ पाये जायेंगे और ऐसा ही होता था।
रवि पाण्डेय बाद में कनाडा चले गये वो वहाँ हिन्दी Abroad के नाम से बहुत प्रतिष्ठित अखबार निकालते है दूसरे मुल्क में जाकर जो नाम रवि पाण्डेय ने बनाया है उस पर हम लोगो को गर्व होना चाहिये। मैं अपने अभिनेता मित्र हेमन्त पाण्डेय और टीवी सीरियल निर्माता केवल सेठी के साथ उनके कनाडा वाले बंग्ले में रहे थे जो आव भगत उन्होंने की उसे कभी नही भुलाया जा सकता है। यह किस्सा कनाडा फ़िल्मोत्सव पेज पर विस्तार से।
चाचा का ऑफिस खुला दरबार था फिल्मों के ऐसे ऐसे किस्से उन्हें पता थे जिनको जोड़कर एक दो किताबें निकाली जा सकती थी। चाचा हमेशा सफारी सूट में होते थे और सर्दियों में टी शर्ट कोट पेण्ट में। उन्हें मुगले आजम के हर किरदार के डायलॉग मुँह जुबानी याद थे जब मूड में होते तो पूरे तरन्नुम में बाकायदा अभिनेताओं की स्टायल में बोलकर सुनाते थे। उन्होंने ही बताया था कि मुगले आजम की टिकट खरीदने के लिए लोग दो दिन तक लाइन में लगे रहे थे। कैसा जुनून रहता होगा फिल्मों के लिये।
चाचा को भी जब कभी टीवी मीडिया की जरूरत होती वो मुझे बोलते थे सहयोग करने को।
मुझे याद है एक बार 8 बजे उन्होंने फोन किया घर पर आदेश दिया कल सुबह 10 बजे प्रगति मैदान में हिन्दुस्तानी फ़िल्म के प्रचार के लिए कमलाहसन आ रहे है जिन्हें बुला सकते हो बुला लो। मैं फोन करने बैठा तो 12 बज गये जिस पत्रकार को 12 बजे फोन किया वो बोले यह कौन सा टाइम है फोन करने का मैंने भी बिना कुछ बताये सॉरी बोलकर फोन काट दिया।
अगले दिन मीडिया का हुजूम देखकर चाचा खुश हो गये और बड़प्पन देखिये कमलाहसन से मिलवाया यह बोलकर कि यह सारा मीडिया इन्होंने ही बुलाया है।
विधु विनोद चोपड़ा की करीब फ़िल्म का म्यूजिक लॉन्च था दिल्ली से दूर किसी फार्म हाउस पर टिप्स म्यूजिक कम्पनी द्वारा, चाचा ने मुझे बोला हरीश टीवी मीडिया की जिम्मेदारी तेरी।
मैं शुरू में उनसे मिलता रहा लेकिन धीरे धीरे व्यस्तता बढ़ती गई मुलाकाते कम होती गई लेकिन फिल्मों के शो में उनसे बराबर मुलाकाते होती रहती थी मैं अपने किसी भी पीआर इवेन्ट, फ़िल्म शो आदि में उन्हें बुलाना नही भूलता था वो आते भी थे। यही उनका बड़प्पन था।
वो चाहते थे मैं उनके ऑफिस में पहले की तरह आया करू कभी जाता भी था। लेकिन काम की व्यस्तता ऐसी बढ़ती गई कि समय कम पड़ने लगा।
2008 में मैं दिल्ली से मुम्बई चला गया तो सिलसिला टूट ही गया एक दो बार फोन पर ही बात हुई थी। 12 नवम्बर 2010 को मुझे उनके न रहने की खबर मुम्बई में मिली तो मैं खुद को उनके अन्तिम दर्शन करने से रोक नही पाया और दिल्ली आया।
चाचा 74 वर्ष की उम्र में इस दुनियां को अलविदा कह गये।
मेरी आने वाली किताब 20 years of Entertainment PR से
हरीश शर्मा