समीक्षा लेख-
सिनेमा बीच बाजार - जयसिंह
पत्रकार रहे जयसिंह की किताब सिनेमा बीच बाजार वास्तव में अपने नाम को सार्थक करती है। वैसे मेरा पसंदीदा chapter किताब में बाल सिनेमा : बड़ा है बाजार रहा।
काफी विस्तार से उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाल सिनेमा पर रोशनी डाली है। बच्चों के लिये हॉलीवुड में सबसे अधिक फिल्में बनती है भारत इन फिल्मों का बड़ा बाजार है लेकिन भारत में बच्चों की फिल्में न के बराबर बनती है जो बनती है वो अपनी लागत भी नही निकाल पाती, जबकि कुल आबादी का करीब 40% ५-14 वर्ष के बच्चों का है।
भारत में बाल फिल्में बॉक्स ऑफिस पर तभी सफल होती है जब कोई बड़ा स्टार हो फ़िल्म में या अपना नाम दे दे या निर्माता का नाम बड़ा हो।
बकौल जय थोड़ी बहुत इज्जत चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी ने रख ली है जिसने करीब 250 फिल्में बनाई है। सोसायटी का शुक्रिया लेकिन मेरा विचार है चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी को आधुनिकता का जामा पहनाना पड़ेगा। सरकार को भी थोड़ी स्वतंत्रता देनी पड़ेगी। बजट में भी कहानी में भी। वरना फिल्में बनाते रहिये यूट्यूब पर अपलोड करते रहिये, विभिन्न बाल फ़िल्म समारोह में अवार्ड जीतते रहिये।
हॉलीवुड की बाल फिल्में हमारे यहाँ खूब पैसा कमाती है। जय ने सवाल उठाया कि हॉलीवुड की फिल्में क्यों चलती है। जवाब में वो लिखते है यदि अच्छी फिल्में बनेंगी तो बच्चे अपने अभिवावकों को मजबूर करेंगे कि वो उन्हें उनकी फिल्में दिखाए।
किताब में दी गई सर्वश्रेष्ठ अंग्रेजी और हिन्दी फिल्मों की list से आप अपनी पसन्द की फिल्में देख सकते है।
बाल फिल्मों की तरह ही हम एनिमेशन फिल्मों में भी पिछड़े हुए है। मजे की बात यह है कि भारत में हॉलीवुड की जो फिल्में करोड़ो रूपया कमाती है उसको बनाने का 80% कार्य अपने देश के मुम्बई चेन्नई बंगलुरू हैदराबाद और त्रिवेंद्रम जैसे शहरों के विश्वस्तरीय एनिमेशन और ग्राफिक्स स्टूडियो में होता है।
यानि हम हॉलीवुड की एनिमेशन फिल्में बना सकते है लेकिन अपने लिए नही। लेकिन मैं मानता हूँ आज नही तो कल हम यह फ़िल्म खुद के लिए भी बनायेंगे और सफल होंगे।
जय सिंह की 395 रुपये की सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित किताब में 10 cheptar है जयसिंह लिखते है भारत दुनिया का सबसे अधिक फिल्में बनाने वाला देश है। लेकिन पहली हिन्दी फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र वर्ष 1913 बनाने के लिए दादा साहब फालके की पत्नी सरस्वती देवी को पैसों के लिए अपने गहने देने पड़े थे।
ऐसी बहुत सी रोचक जानकारी इस किताब में है। दादा की अगली फ़िल्म लंकादहन ने बम्बई में ही 10 दिन में 32 हज़ार रुपये कमा लिए थे। जिस सिनेमाघर में यह फ़िल्म दिखाई जा रही थी उसके चारों तरफ बैलगाड़िया खड़ी करनी पड़ी थी क्योंकि सिक्कों में हो रही कमाई को बोरों में भरकर घर ले जाया जा रहा था। उस समय 20 हज़ार रूपये में तीन प्रिंट बन जाते थे।
जय लिखते है अंग्रेजी राज में राजनीतिक पृष्टभूमि वाली फिल्मों पर उनकी पैनी नजर रहती थी लेकिन हिंसा और अश्लीलता पर वो कन्नी काट जाते थे। 1936 में आई फ़िल्म कर्मा में हिमांशु राय और देविका रानी के चुम्बन दृश्य के चर्चे तो आज भी सुनाई दे जाते है।
1936 में आई भारत की बेटी में 13 मिनट का चुम्बन दृश्य था और उसी वर्ष बनी शोख दिलरुबा में 150 चुम्बन द्रश्य थे। पहली बोलती फ़िल्म से तो सब परिचित है 1931 में आई यह थी आलमआरा। 1932 में बनी इंद्रसभा में 69 गाने थे। एक फ़िल्म चंडीदास में संवाद के स्थान पर पाशर्व संगीत था। 1912 से 1935 के बीच देश में 130 फिल्में बनी थी।
भारत की पहली सिल्वर जुबली फ़िल्म थी अमृत मन्थन।
फ़िल्म का व्यवसाय शो बिजेनस है यह कहना था कोहिनूर कम्पनी के द्वारका दास सम्पत का। क्या आप कल्पना कर सकते है कि 1921 में आई उनकी फिल्म सती अनुसूया में सकीनाबाई का नग्न नृत्य था।
हिन्दी सिनेमा को 1950 के दशक को स्वर्णयुग कहा जाता है क्यों तो देखिए फ़िल्म आवारा, बाज़ी, झाँसी की रानी, पहली टेक्नीकलर फ़िल्म दो बीघा जमीन, आह, बूट पॉलिश आदि सूची लम्बी है। यानि इतिहास के पन्नों से हिन्दी सिनेमा के अभी तक का इतिहास है।
कला अथवा उत्पाद खण्ड में मुझे और शायद आप लोगों को भी पहली बार पता चला कि पहली फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र में रानी तारामती किरदार एक पुरुष अन्ना हरी सालुंके ने निभाया था क्योंकि उस भूमिका को करने के लिए कोई महिला तैयार नही हुई थी। सालुंके ने भी यह भूमिका तब की जब उन्हें 15 रुपये महीना मिलने की बात तय हो गई। बाद में सालुंके ने बहुत से महिला चरित्र निभाये
कहाँ है हिंदी सिनेमा chapter में जय लिखते है मशहूर गीतकार शैलेंद्र ने तीसरी कसम फ़िल्म बनाने के लिए अपना सबकुछ दाँव पर लगा दिया फ़िल्म तीन दिन भी नही चली, शैलेंद्र गम भुलाने के लिए शराब में डूब गए। राजकपूर ने मेरा नाम जोकर ने अपना बंगला भी गिरवी रख दिया था लेकिन फ़िल्म उस समय नही चली लेकिन आज दोनो फिल्में भारतीय सिनेमा की क्लासिक फिल्में मानी जाती है।
डिजिटल तकनीक के सहारे : मुट्ठी में बाजार अध्याय में जय लिखते है मुगले आज़म बनाने में 10 साल लगे थे जबकि आज एक फ़िल्म बनाने में दो महीने भी नही लगते यह सम्भव हुआ डिजिटल क्रान्ति से।
मल्टीप्लेक्स, मिनिप्लेक्स और ओटीटी ने फ़िल्म देखने की विधा ही बदलकर रख दी। जय ने बताया है आज कितने तरीके से फ़िल्म देखना आसान हुआ है।
फिल्मों में ब्रांड अध्याय में जय फिल्मों में ब्रांड इस्तेमाल के विषय में विस्तार से लिखते है। 1950 दशक से ब्रांड्स फिल्मों का हिस्सा हो गए थे। हिन्दी फिल्मों के साथ ही हॉलीवुड की सफल ब्रांड्स का इस्तेमाल करने वाली फिल्मों की सूची है और असफल फिल्मों की भी।
धुनों पर झूमता बाजार खण्ड में जय ने बताया कि शुरू की फिल्मों में उन्ही कलाकारों को लिया जाता था जो गाते भी हो संगीत की जानकारी रखते हो। 1949 में आई महबूब खान की अन्दाज़ अपने गीत संगीत की वजह से हिट हुई पहली फ़िल्म थी। उसी श्रृंखला में के एल सहगल और अशोक कुमार के नाम तो सबको पता ही है।
गीत संगीत के बिना भारतीय फिल्मों की कल्पना भी नही की जा सकती। तब भी अब भी। संगीत के लिए आठवा दशक बहुत अच्छा नही था लेकिन 9वा दशक में संगीत की सुरीली वापसी हुई। संगीत का बाजार आज करीब 2000 करोड़ का पहुँच गया है।
अंदाज ऐसे लगाए कि वर्ष 2000 में मात्र 30 करोड़ कैसेट और एक करोड़ सीडी बिकी थी। इसी खंड में रीमिक्स का कारोबार, गाने या गानों की फिल्में, संगीत का डिजिटल बाजार, पायरेसी लाइलाज मर्ज की विस्तृत चर्चा है।
विश्व बाजार में भारतीय सिनेमा खण्ड में जय लिखते है हमारे यहाँ प्रतिवर्ष 1250 फिल्में बनती है जो देश सहित विदेशों में भी कमाई करती और सराही जाती है 1955 में श्री 420 ने विदेशों से 2 करोड़ कमाए थे।
क्षेत्रीय सिनेमा खण्ड जय ने हमारे देश के विभिन्न राज्यों में बनने वाली फिल्मों की गहरी पड़ताल की है।
कुल मिलाकर किताब में बाजार नाम जरूर है लेकिन हैं मनोरंजन से भरपूर। फिल्मों के इतिहास के साथ साथ वर्तमान सिनेमा की जानकारी का अच्छा तारतम्य बैठाया है।
प्रत्येक खण्ड को बेहतरीन बनाने की जय की कोशिश अच्छी है। सिनेमा में रुचि रखने वाले पाठकों को यह किताब रुचिकर लगेगी। लेकिन किताब का मूल्य रुपये 395 मुझे अधिक लगा। किताब देश और स्कूल कॉलेज के पुस्तकालयो में उपलब्ध हो तो बेहतर होगा। इस तरह की किताब की ख़ासियत रहेगी कि 5/100 साल बाद इसका अगला भाग निकाला जा सकता है।
हरीश शर्मा
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