ओम प्रकाश कत्याल चाचा
फ़िल्म पीआर में अग्रणीय नाम
एक ऐसा नाम है जिनका जिक्र किये बिना मेरी किताब अधूरी होगी। दिल्ली में फिल्मों के इनसाक्लोपीडिया थे कत्याल साहब यानि जगत चाचा, सब उन्हें चाचा कह कर बुलाते थे। फ़िल्म इतिहास की कोई भी जानकारी उनकी जुबान पर रहती थी। मीडिया के लोग अपने किसी लेख में फंसते थे तो चाचा को फोन करते थे।
दिल्ली और उत्तर भारत के सबसे बड़े पीआरओ वही थे। मेरी उनसे पहली मुलाकात शायद होटल मौर्या दिल्ली में हुई थी 1993 अप्रैल में, मुझे पिथौरागढ़ से आये कुछ ही समय हुआ था। नोएडा फ़िल्म सिटी में नोकरी के चलते अनिल कपूर के जीजा संदीप मारवाह से मुलाकात होती रहती थी।
उन्होंने ही मुझे फ़िल्म रूप की रानी चोरो का राजा की प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिये बुलाया था। फाइव स्टार होटल, फ़िल्म स्टार्स यह सब बरेली और पिथौरागढ़ जैसे शहर से आये लड़के के लिए सपने जैसा था। मुझे याद है जब मैं दिल्ली आया था तो मन किया फाइव स्टार होटल कैसा होता है उसे देख जाये।
अख़बार के दैनिक सूची में देखा हयात होटल में पेन्टिंग प्रदर्शनी लगी थी जहाँ जाना फ्री था सोचा इसके बहाने फाइव स्टार देख लिया जाये। जब वहाँ गया तो पता चला हयात के जिस हॉल में प्रदर्शनी लगी थी उसका रास्ता होटल के अंदर से नही सड़क से ही था लिहाज़ा फाइव स्टार देखने का सपना पूरा किया सन्दीप मारवाह ने।
तो बात रूप की रानी चोरों का राजा की चल रही थी। प्रेस वार्ता में बमुश्किल 50 पत्रकार होंगे जिसमें मैं अकेला ऐसा पत्रकार था जो सिर्फ सन्दीप मारवाह को जानता था। उस दिन मैंने अनिल कपूर,बोनी कपूर, बाबा आजमी, जावेद अख्तर, सुरेन्द्र कपूर और सतीश कौशिक को देखा उनकी बातें सुनी कुछ समझ आयी कुछ बाउंसर हो गई।
अजीब लगा जब बात फ़िल्म की हुई तो बताया गया यह अभी तक की सबसे महँगी फिल्मों में से एक है 9.2 करोड़ की, इससे पहले फ़िल्म अजूबा सबसे महँगी थी 8 करोड़ की जिसने बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नही माँगा था। उस समय 1 से 2 करोड़ की फिल्में बनती थी।
रूप की रानी की प्रेस वार्ता में जो बात मुझे बहुत अखरी कि 50 में से करीब 45 पत्रकार हिन्दी के थे जिसमें से सिर्फ एक या दो पत्रकारों ने एक एक प्रश्न पूछा बाकि पूरी प्रेस कांफ्रेंस में अंग्रेजी के पत्रकार ही गिटपिट करते रहे। इसके बाद मैंने यह निश्चय किया कि किसी भी प्रेस वार्ता में सबसे पहला और कई प्रश्न हिन्दी में मैं पूछा करूँगा और मुझे खुशी है कि मैंने पत्रकार रहते अपनी यह जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाई यही नही पीआर के दौरान भी हिन्दी पत्रकारों को खूब बढ़ावा दिया।
ऐसा नही है कि मुझे अंग्रेजी या अंग्रेजी पत्रकारों से कोई गुरेज हो लेकिन मुझे लगता था हिन्दी पत्रकारों में कुछ संकोच होता था वो भी सिर्फ पहले प्रश्न पूछने का, उसके बाद तो यह बहुत खतरनाक हो जाते है जिनको संयमित रखना आसान नही था।
तो बात चाचा की चल रही थी। जब हम मौर्य होटल में थे तो मीडिया के सभी पत्रकार चाचा के बुलाये हुए थे मैं अकेला अलग थलग, चाचा को लगा यह लड़का बिना बुलाया मेहमान है वो मुझे प्रश्नवाचक बन कर घूर रहे थे। क्योंकि जो भी आता वो चाचा से मिलता चाचा अपने प्लास्टिक के बैग से फ़िल्म का ब्रोशर निकाल कर देते और किस जगह प्रेस वार्ता है बताते।
मैं अभी सोंच ही रहा था क्या करूँ तभी सामने से आते सन्दीप मारवाह दिख गये उन्होंने मुझे देख लिया फिर चाचा से मिलवाया यह हरीश शर्मा है नोयडा के पत्रकार है। चाचा ने अजीब सा मुँह बनाया कि मेरे बिना बुलाये कैसे कोई पत्रकार आ सकता है लेकिन सन्दीप मुझे अपने साथ अन्दर ले गये।
मेरी पहली ग्लैमरस प्रेस कॉन्फ्रेंस थी तो उस समय की बहुत सी यादें है। मैं सबसे पीछे की सीट पर बैठा था हॉल छोटा सा था एक स्क्रीन भी थी जिस पर गाने दिखाये गये थे। अनिल कपूर का एक उत्तर आज भी याद है एक महिला पत्रकार ने पूछा था कि आप इस मुकाम पर है कि आर्ट फिल्में भी कर सकते है तो सिर्फ कमर्शियल फिल्में ही क्यों कर रहे है ?
अनिल ने कहा मुझे एक ही परिभाषा पता है अच्छी फिल्म या बुरी फ़िल्म। मुझे जो भूमिका पसंद आती है वो मैं करता हूँ। फिर अनिल ने एक प्रश्न उस पत्रकार से ही पूछ लिया ईश्वर को आप कैसी फ़िल्म मानती है ?
उस पत्रकार ने कहा ईश्वर तो मीडिल लाइन फ़िल्म थी अनिल बोले बस मुझे ऐसी ही मीडिल लाइन फिल्में पसन्द है तभी एक अन्य पत्रकार ने पूछा 1942 लवस्टोरी को क्या मानते है ?
अनिल कपूर का जवाब था विदु विनोद चोपड़ा तो इसे पूर्णतया कमर्शियल फ़िल्म कहते है लेकिन मैं इसे मिडिल लाइन फ़िल्म मानता हूँ।
मुझे पहली बार पता चला कि कला और व्यावसायिक फिल्मों के अलावा एक और तरीके की फ़िल्म होती है मध्य पंक्तियों की फ़िल्म हालांकि मैंने अपने 20 वर्षो के फिल्मी जीवन में यह मीडिल लाइन फिल्मों की चर्चा बहुत अधिक नही सुनी।
रूप की रानी जब रिलीज हुई तो मुझे फिर सन्दीप मारवाह ने प्रेस शो के लिये बुलाया उस सिनेमाघर में चाचा के बुलाये ही पत्रकार आये हुए थे। इस बार मैं चाचा के पास गया वो बोले तू फिर आ गया चल ले टिकट अंदर बैठ कभी ऑफिस में आकर मिल।
वैसे भी चाचा टिकट देने के मामले में उदार थे कई पत्रकार तो बीबी बच्चों सहित आ जाते थे लेकिन कभी उन्होंने किसी को न नही कहा। ये बातें मुझे उन्हें सही से जानने के बाद बाद में पता चली थी।
रूप की रानी देखी फ़िल्म के बारे में तो क्या कहूँ 3 घण्टे 10 मिनट की फ़िल्म ने पका दिया था । निकलते गेट के बाहर ही चाचा खड़े थे सबसे पूछते हाँ भई कैसी लगी सभी पत्रकार सिर झुकाये कहते हुए निकल जाते बहुत अच्छी।
मेरा नम्बर आया तो मैंने कहा समोसे और कोल्डड्रिंक बहुत अच्छी थी चाचा, मैं ऑफिस में मिलता हूँ। उस फिल्म को देखने के बाद पता चला यार यह तो बहुत अच्छा है कोई भी फ़िल्म हो पहला दिन पहला शो देखो इंटरवेल में दो समोसे कोल्डड्रिंक या चाय पियो न टिकट की लाइन का झंझट न हाउसफुल की चिन्ता। और यदि शो
रूप की रानी ने 2.70 करोड़ का धन्धा किया। असफलता का ठीकरा आधी फ़िल्म के निर्देशक सतीश कौशिक पर फोड़ा गया। आधी इसलिए कि पहले इस फ़िल्म के निर्देशक इसी टीम को सुपरहिट फिल्म मि इंडिया दे चुके शेखर कपूर थे लेकिन ये फ़िल्म उन्होंने अधर में छोड़ दी तो शेखर के सहायक रहे और अनिल कपूर के दोस्त सतीश ने यह जिम्मेदारी ली।
चाचा से उनके ऑफिस में मुलाकात हुई । चाँदनी चौक में एक थोक के बाजार में कोई 10 सीढ़ी चढ़कर उनका ऑफिस था।
उनके ऑफिस के सामने दिल्ली के बड़े फिल्म वितरक बॉबी आर्ट का आफिस था। चाचा ने पहले अपना आफिस दिखाया बताया इसका किराया है 150 रुपये फिर वो रुके बोले 150 रुपये साल।
उनकी एक अलमारी थी जिसमें वो हमेशा ताला लगाकर रखते थे म्यूजिक कैसेट का जमाना था म्यूज़िक कम्पनी म्यूज़िक समीक्षा के लिये कैसेट देती थी उसी खजाने को चाचा आलमारी में रखते थे।
उस दिन चाचा ने काफी पिलायी, परिवार के विषय मे पूछा । उस दिन चाचा ने मुझे झोली भरकर म्यूज़िक कैसेट दिए और ढ़ेर सारे फिल्मों के फोटो । चाचा का मुख्य काम अखबारों में फ़िल्म के विज्ञापन छपवाने का था साथ ही फिल्मो के पीआरओ हो गये थे। 80 और 90 दशक के वो सबसे बड़े पीआरओ थे इसमें कोई अतिश्योक्ति नही थी।
थोड़ा ज्यादा पीछे जाये तो पता चला चाचा का जन्म 1936 में पाकिस्तान में हुआ था। अपने परिवार के साथ बँटवारे के समय लाहौर से 195 किमी दूर झंग नामक जगह से लुधियाना पहुँचे जहाँ काफी संघर्ष किया दुकानों में झाड़ू पोछा तक लगाया।
बेहतर भविष्य की तलाश में दिल्ली आ गये। उस समय दिल्ली के मल्कागंज में भी पाकिस्तान से आये लोगो को मकान दिए गये थे। कुछ समय रहने के बाद माहौल अच्छा न होने के चलते परिवार आजादपुर मंडी में आकर किराए के मकान में रहने लगे। उस समय वो इलाका जंगल ही था। दिल्ली में ही उनकी शादी हुई।
चाचा ने प्रसिद्ध फ़िल्म पत्रिका रंगभूमि में 100 रुपये महीने की कुछ समय तक नोकरी की फिर अपनी मौसी के लड़के एस एस मुनव्वर जो फ़िल्म वितरक और पीआरओ थे के साथ काम करने लगे।
एक सड़क दुर्घटना में मुनव्वर साहब का इंतकाल हो गया। चाचा भी उसी कार में थे दो महीने तक घर में रहकर इलाज कराते रहे।
उस समय तक चाचा विज्ञापन और पीआरओ का काम काफी हद तक सीख गये थे। एक समय ऐसा भी आया कि 75% फिल्मों के विज्ञापन और पीआरओ का काम वही करते थे । चाचा ने करीब 3/400 फिल्मों का काम किया होगा।
अपनी मदद के लिए उन्होंने एक प्रतिभाशाली युवक राजकमल को अपने साथ रख लिया जिन्होंने बाद में फ़िल्म अखबार मिनी फ़िल्म रिपोर्टर निकाला।
चाचा ने अपने भाई के बेटे आनन्द को गोद लिया और उसे काम सिखाया। आनन्द ने बताया एक तो मैं पढ़ाई में अच्छा नही था ऊपर से हरेक फ़िल्म देखने को और खाने पीने को मिलने लगा तो मैं फिल्मों का ही होकर रह गया।
आनन्द ने बताया चाचा ने इज्जत और पैसा खूब कमाया यही वजह है कि आज काम करने का अंदाज़ बदलने के बावजूद यशराज का काम अभी भी हमारे पास है और यह यशराज फिल्म्स का बड़प्पन है कि फ़िल्म उद्योग में इतने बड़े मुकाम पर होने के बाद भी आज वो हमारे साथ है और रहेंगे।
मेरी जब चाचा से मुलाकात हुई उस समय चाचा की उम्र करीब 60/62 वर्ष होगी। आवाज उनकी कड़क थी उससे कभी कभी लगता था वो कड़वा बोलने वाले है लेकिन कुछ मुलाकातों के बाद पता चला वो ऊपर से कड़क अंदर से नरम है।
जल्दी ही मेरी उनसे अच्छी पटने लगी। मैं उनके हरेक फिल्मी कार्यक्रम का हिस्सा हो गया। हालाँकि यह बात बहुत से पुराने पत्रकारों को हजम नही हुई। लेकिन इससे उन्हें या मुझे कोई फर्क नही पड़ा। उनकी अनुभवी आखों ने पढ़ लिया था यह लड़का कुछ करेगा।
प्रतिभाशाली पत्रकार उनके यहाँ लगातार बैठकी लगाते थे ख़ासकर बृहस्पतिवार को क्योंकि शुक्रवार को फ़िल्म के शो होते थे उसके टिकट चाचा गुरुवार को भी दे देते थे जो उनके दरबार में आता था लिफाफे भी मिलते थे लिफाफों की बात किसी अन्य पेज पर।
जो पत्रकार चाचा के पास लगातार आते थे उनमें दो नाम तो मुझे याद है चंद्रमोहन शर्मा जो वीर अर्जुन में थे आज नवभारत टाइम्स में है उनको फिल्मों की सटीक समीक्षा के लिए जाना जाता है और रवि पाण्डेय सान्ध्य टाइम्स में थे, यह उस समय की ऐसी जोड़ी थी जिसे आप शोले के जय वीरू भी कह सकते है। एक को ढूंढ लो तो दूसरा खुद ही मिल जाये। चन्द्र और रवि जब कही नही मिलते थे इसका मतलब वो चाचा के यहाँ पाये जायेंगे और ऐसा ही होता था।
रवि पाण्डेय बाद में कनाडा चले गये वो वहाँ हिन्दी Abroad के नाम से बहुत प्रतिष्ठित अखबार निकालते है दूसरे मुल्क में जाकर जो नाम रवि पाण्डेय ने बनाया है उस पर हम लोगो को गर्व होना चाहिये। मैं अपने अभिनेता मित्र हेमन्त पाण्डेय और टीवी सीरियल निर्माता केवल सेठी के साथ उनके कनाडा वाले बंग्ले में रहे थे जो आव भगत उन्होंने की उसे कभी नही भुलाया जा सकता है। यह किस्सा कनाडा फ़िल्मोत्सव पेज पर विस्तार से।
चाचा का ऑफिस खुला दरबार था फिल्मों के ऐसे ऐसे किस्से उन्हें पता थे जिनको जोड़कर एक दो किताबें निकाली जा सकती थी। चाचा हमेशा सफारी सूट में होते थे और सर्दियों में टी शर्ट कोट पेण्ट में। उन्हें मुगले आजम के हर किरदार के डायलॉग मुँह जुबानी याद थे जब मूड में होते तो पूरे तरन्नुम में बाकायदा अभिनेताओं की स्टायल में बोलकर सुनाते थे। उन्होंने ही बताया था कि मुगले आजम की टिकट खरीदने के लिए लोग दो दिन तक लाइन में लगे रहे थे। कैसा जुनून रहता होगा फिल्मों के लिये।
चाचा को भी जब कभी टीवी मीडिया की जरूरत होती वो मुझे बोलते थे सहयोग करने को।
मुझे याद है एक बार 8 बजे उन्होंने फोन किया घर पर आदेश दिया कल सुबह 10 बजे प्रगति मैदान में हिन्दुस्तानी फ़िल्म के प्रचार के लिए कमलाहसन आ रहे है जिन्हें बुला सकते हो बुला लो। मैं फोन करने बैठा तो 12 बज गये जिस पत्रकार को 12 बजे फोन किया वो बोले यह कौन सा टाइम है फोन करने का मैंने भी बिना कुछ बताये सॉरी बोलकर फोन काट दिया।
अगले दिन मीडिया का हुजूम देखकर चाचा खुश हो गये और बड़प्पन देखिये कमलाहसन से मिलवाया यह बोलकर कि यह सारा मीडिया इन्होंने ही बुलाया है।
विधु विनोद चोपड़ा की करीब फ़िल्म का म्यूजिक लॉन्च था दिल्ली से दूर किसी फार्म हाउस पर टिप्स म्यूजिक कम्पनी द्वारा, चाचा ने मुझे बोला हरीश टीवी मीडिया की जिम्मेदारी तेरी।
मैं शुरू में उनसे मिलता रहा लेकिन धीरे धीरे व्यस्तता बढ़ती गई मुलाकाते कम होती गई लेकिन फिल्मों के शो में उनसे बराबर मुलाकाते होती रहती थी मैं अपने किसी भी पीआर इवेन्ट, फ़िल्म शो आदि में उन्हें बुलाना नही भूलता था वो आते भी थे। यही उनका बड़प्पन था।
वो चाहते थे मैं उनके ऑफिस में पहले की तरह आया करू कभी जाता भी था। लेकिन काम की व्यस्तता ऐसी बढ़ती गई कि समय कम पड़ने लगा।
2008 में मैं दिल्ली से मुम्बई चला गया तो सिलसिला टूट ही गया एक दो बार फोन पर ही बात हुई थी। 12 नवम्बर 2010 को मुझे उनके न रहने की खबर मुम्बई में मिली तो मैं खुद को उनके अन्तिम दर्शन करने से रोक नही पाया और दिल्ली आया।
चाचा 74 वर्ष की उम्र में इस दुनियां को अलविदा कह गये।
मेरी आने वाली किताब 20 years of Entertainment PR से
हरीश शर्मा
वाह, चाचा के विषय में काफ़ी रोचक जानकारी मिली। आपकी लेखन शैली भी अद्भुत है जिसने इस विषय को वास्तव में बहुत रोचक बना दिया। एक बार पढ़ना शुरू किया तो अंत तक पढ़ता ही गया। आपकी आगामी प्रकाशित होने वाली पुस्तक से भी बहुत अपेक्षाएँ हैं।
ReplyDeleteबहुत रोचक कहानी है। पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही गया। दिलचस्प!
ReplyDeleteबहुत रोचक कहानी है। पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही गया। दिलचस्प!
ReplyDeleteबेहतरीन लिखा, हिन्दुस्तानी के प्रेस कान्फ्रेंस में मैं भी मौजूद था.
ReplyDeleteहरीश जी आपने इतना बेहतरीन लिखा है कि मुझे आपकी पुस्तक "20 years of Entertainment PR" पढ़ने का बेसब्री से इंतजार रहेगा.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख है अभी तक मुझे गलतफहमी थी कि चाचा से तुम्हारी मुलाकात मैंने करवाई है पहली बार पता चला तुम मुझसे पहले भी मिल चुके हो लेकिन चाचा हमेशा ही कहते थे कि हरीश को तुम ही लेकर मेरे पास आए थे
ReplyDeleteभाई बेहतर और ईमानदार संस्मरण है
ReplyDeleteबहुत सारी पुरानी बातें याद आ गई जब फिल्म कॉलोनी में चाचा से मुलाकात हुई थी चाचा जी अच्छे इंसान थे
ReplyDeleteकाफी दम है, मसाला है।
ReplyDeleteबेहतरीन संस्मरण। सारा दृश्य आंखों में रिप्ले हो गया
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