Tuesday, December 22, 2020

गहने जमानत पर रख कर बनी थी भारत की पहली फ़िल्म - "राजा हरिश्चन्द्र"

गहने जमानत पर रख कर बनी थी भारत की पहली फ़िल्म - "राजा हरिश्चन्द्र"

समीक्षा लेख- 

सिनेमा बीच बाजार - जयसिंह

पत्रकार रहे जयसिंह की किताब सिनेमा बीच बाजार वास्तव में अपने नाम को सार्थक करती है। वैसे मेरा पसंदीदा chapter किताब में बाल सिनेमा : बड़ा है बाजार रहा।

काफी विस्तार से उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाल सिनेमा पर रोशनी डाली है। बच्चों के लिये हॉलीवुड में सबसे अधिक फिल्में बनती है भारत इन फिल्मों का बड़ा बाजार है लेकिन भारत में बच्चों की फिल्में न के बराबर बनती है जो बनती है वो अपनी लागत भी नही निकाल पाती, जबकि कुल आबादी का करीब 40% ५-14 वर्ष के बच्चों का है। 

भारत में बाल फिल्में बॉक्स ऑफिस पर तभी सफल होती है जब कोई बड़ा स्टार हो फ़िल्म में या अपना नाम दे दे या निर्माता का नाम बड़ा हो। 

बकौल जय थोड़ी बहुत इज्जत चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी ने रख ली है जिसने करीब 250 फिल्में बनाई है। सोसायटी का शुक्रिया लेकिन मेरा विचार है चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी को आधुनिकता का जामा पहनाना पड़ेगा। सरकार को भी थोड़ी स्वतंत्रता देनी पड़ेगी। बजट में भी कहानी में भी। वरना फिल्में बनाते रहिये यूट्यूब पर अपलोड करते रहिये, विभिन्न बाल फ़िल्म समारोह में अवार्ड जीतते रहिये। 

हॉलीवुड की बाल फिल्में हमारे यहाँ खूब पैसा कमाती है। जय ने सवाल उठाया कि हॉलीवुड की फिल्में क्यों चलती है। जवाब में वो लिखते है यदि अच्छी फिल्में बनेंगी तो बच्चे अपने अभिवावकों को मजबूर करेंगे कि वो उन्हें उनकी फिल्में दिखाए। 

किताब में दी गई सर्वश्रेष्ठ अंग्रेजी और हिन्दी फिल्मों की list से आप अपनी पसन्द की फिल्में देख सकते है।

बाल फिल्मों की तरह ही हम एनिमेशन फिल्मों में भी पिछड़े हुए है। मजे की बात यह है कि भारत में हॉलीवुड की जो फिल्में करोड़ो रूपया कमाती है उसको बनाने का 80% कार्य अपने देश के मुम्बई चेन्नई बंगलुरू हैदराबाद और त्रिवेंद्रम जैसे शहरों के विश्वस्तरीय एनिमेशन और ग्राफिक्स स्टूडियो में होता है। 

यानि हम हॉलीवुड की एनिमेशन फिल्में बना सकते है लेकिन अपने लिए नही। लेकिन मैं मानता हूँ आज नही तो कल हम यह फ़िल्म खुद के लिए भी बनायेंगे और सफल होंगे।

जय सिंह की 395 रुपये की सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित किताब में 10 cheptar है जयसिंह लिखते है भारत दुनिया का सबसे अधिक फिल्में बनाने वाला देश है। लेकिन पहली हिन्दी फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र वर्ष 1913 बनाने के लिए दादा साहब फालके की पत्नी सरस्वती देवी को पैसों के लिए अपने गहने देने पड़े थे। 

ऐसी बहुत सी रोचक जानकारी इस किताब में है। दादा की अगली फ़िल्म लंकादहन ने बम्बई में ही 10 दिन में 32 हज़ार रुपये कमा लिए थे। जिस सिनेमाघर में यह फ़िल्म दिखाई जा रही थी उसके चारों तरफ बैलगाड़िया खड़ी करनी पड़ी थी क्योंकि सिक्कों में हो रही कमाई को बोरों में भरकर घर ले जाया जा रहा था। उस समय 20 हज़ार रूपये में तीन प्रिंट बन जाते थे।

जय लिखते है अंग्रेजी राज में राजनीतिक पृष्टभूमि वाली फिल्मों पर उनकी पैनी नजर रहती थी लेकिन हिंसा और अश्लीलता पर वो कन्नी काट जाते थे। 1936 में आई फ़िल्म कर्मा में हिमांशु राय और देविका रानी के चुम्बन दृश्य के चर्चे तो आज भी सुनाई दे जाते है।

1936 में आई भारत की बेटी में 13 मिनट का चुम्बन दृश्य था और उसी वर्ष बनी शोख दिलरुबा में 150 चुम्बन द्रश्य थे। पहली बोलती फ़िल्म से तो सब परिचित है 1931 में आई यह थी आलमआरा। 1932 में बनी इंद्रसभा में 69 गाने थे। एक फ़िल्म चंडीदास में संवाद के स्थान पर पाशर्व संगीत था। 1912 से 1935 के बीच देश में 130 फिल्में बनी थी। 

भारत की पहली सिल्वर जुबली फ़िल्म थी अमृत मन्थन। 

फ़िल्म का व्यवसाय शो बिजेनस है यह कहना था कोहिनूर कम्पनी के द्वारका दास सम्पत का। क्या आप कल्पना कर सकते है कि 1921 में आई उनकी फिल्म सती अनुसूया में सकीनाबाई का नग्न नृत्य था। 

हिन्दी सिनेमा को 1950 के दशक को स्वर्णयुग कहा जाता है क्यों तो देखिए फ़िल्म आवारा, बाज़ी, झाँसी की रानी, पहली टेक्नीकलर फ़िल्म दो बीघा जमीन, आह, बूट पॉलिश आदि सूची लम्बी है। यानि इतिहास के पन्नों से हिन्दी सिनेमा के अभी तक का इतिहास है। 

कला अथवा उत्पाद खण्ड में मुझे और शायद आप लोगों को भी पहली बार पता चला कि पहली फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र में रानी तारामती किरदार एक पुरुष अन्ना हरी सालुंके ने निभाया था क्योंकि उस भूमिका को करने के लिए कोई महिला तैयार नही हुई थी। सालुंके ने भी यह भूमिका तब की जब उन्हें 15 रुपये महीना मिलने की बात तय हो गई। बाद में सालुंके ने बहुत से महिला चरित्र निभाये 

कहाँ है हिंदी सिनेमा chapter में जय लिखते है मशहूर गीतकार शैलेंद्र ने तीसरी कसम फ़िल्म बनाने के लिए अपना सबकुछ दाँव पर लगा दिया फ़िल्म तीन दिन भी नही चली, शैलेंद्र गम भुलाने के लिए शराब में डूब गए। राजकपूर ने मेरा नाम जोकर ने अपना बंगला भी गिरवी रख दिया था लेकिन फ़िल्म उस समय नही चली लेकिन आज दोनो फिल्में भारतीय सिनेमा की क्लासिक फिल्में मानी जाती है। 

डिजिटल तकनीक के सहारे : मुट्ठी में बाजार अध्याय में जय लिखते है मुगले आज़म बनाने में 10 साल लगे थे जबकि आज एक फ़िल्म बनाने में दो महीने भी नही लगते यह सम्भव हुआ डिजिटल क्रान्ति से। 

मल्टीप्लेक्स, मिनिप्लेक्स और ओटीटी ने फ़िल्म देखने की विधा ही बदलकर रख दी। जय ने बताया है आज कितने तरीके से फ़िल्म देखना आसान हुआ है।

फिल्मों में ब्रांड अध्याय में जय फिल्मों में ब्रांड इस्तेमाल के विषय में विस्तार से लिखते है। 1950 दशक से ब्रांड्स फिल्मों का हिस्सा हो गए थे। हिन्दी फिल्मों के साथ ही हॉलीवुड की सफल ब्रांड्स का इस्तेमाल करने वाली फिल्मों की सूची है और असफल फिल्मों की भी।

धुनों पर झूमता बाजार खण्ड में जय ने बताया कि शुरू की फिल्मों में उन्ही कलाकारों को लिया जाता था जो गाते भी हो संगीत की जानकारी रखते हो। 1949 में आई महबूब खान की अन्दाज़ अपने गीत संगीत की वजह से हिट हुई पहली फ़िल्म थी। उसी श्रृंखला में के एल सहगल और अशोक कुमार के नाम तो सबको पता ही है। 

गीत संगीत के बिना भारतीय फिल्मों की कल्पना भी नही की जा सकती। तब भी अब भी। संगीत के लिए आठवा दशक बहुत अच्छा नही था लेकिन 9वा दशक में संगीत की सुरीली वापसी हुई। संगीत का बाजार आज करीब 2000 करोड़ का पहुँच गया है। 

अंदाज ऐसे लगाए कि वर्ष 2000 में मात्र 30 करोड़ कैसेट और एक करोड़ सीडी बिकी थी। इसी खंड में रीमिक्स का कारोबार, गाने या गानों की फिल्में, संगीत का डिजिटल बाजार, पायरेसी लाइलाज मर्ज की विस्तृत चर्चा है।

विश्व बाजार में भारतीय सिनेमा खण्ड में जय लिखते है हमारे यहाँ प्रतिवर्ष 1250 फिल्में बनती है जो देश सहित विदेशों में भी कमाई करती और सराही जाती है 1955 में श्री 420 ने विदेशों से 2 करोड़ कमाए थे।

क्षेत्रीय सिनेमा खण्ड जय ने हमारे देश के विभिन्न राज्यों में बनने वाली फिल्मों की गहरी पड़ताल की है।

कुल मिलाकर किताब में बाजार नाम जरूर है लेकिन हैं मनोरंजन से भरपूर। फिल्मों के इतिहास के साथ साथ वर्तमान सिनेमा की जानकारी का अच्छा तारतम्य बैठाया है।

प्रत्येक खण्ड को बेहतरीन बनाने की जय की कोशिश अच्छी है। सिनेमा में रुचि रखने वाले पाठकों को यह किताब रुचिकर लगेगी। लेकिन किताब का मूल्य रुपये 395 मुझे अधिक लगा। किताब देश और स्कूल कॉलेज के पुस्तकालयो में उपलब्ध हो तो बेहतर होगा। इस तरह की किताब की ख़ासियत रहेगी कि 5/100 साल बाद इसका अगला भाग निकाला जा सकता है।

हरीश शर्मा

Sunday, December 6, 2020

फ़िल्म नगरी यूपी में, मुख्यमंत्री योगी जी को खुला पत्र

फ़िल्म नगरी यूपी में,

  मुख्यमंत्री योगी जी को खुला पत्र

माननीय मुख्यमंत्री जी आप उत्तर प्रदेश में फ़िल्म नगरी बनाने की एक और कोशिश कर रहे है । 1988 में भी तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह जी ने भी कोशिश की थी। 

वैसे मैं कौन होता हूँ आपको कुछ भी लिखने वाला लेकिन सिर्फ एक आम नागरिक की हैसियत से जो सही लगा वो लिख रहा हूँ। फ़िल्म उद्योग में पिछले 25 वर्षो से हूँ। बरेली में जन्मा पला बड़ा लखनऊ में खेला सो UP के लिये दिल बोलता है। 

1992 में जब पिथौरागढ़ से दिल्ली आया तो कुछ समय नोएडा फ़िल्म नगरी में काम किया था वो अनुभव भी है। आपने फ़िल्म नगरी बनाने के लिए पहली ही meeting में कुछ फ़िल्म हस्तियों को बुलाया यह बहुत अच्छी बात है वो सब अपने क्षेत्रों में सफल है लेकिन फ़िल्म नगरी में उनका योगदान क्या होगा मुझे पता नही। फिर आप मुम्बई गये एक बार पुनः मिले उन लोगो से जो स्टार है या फ़िल्म बनाते है UP में भी बनाई है। आगे भी बनाते रहेंगे। लेकिन UP की फ़िल्म नगरी बनाने में इनका क्या योगदान होगा आप बेहतर जानते है । 

यदि आप नोएडा फिल्म नगरी बनाने वाली गलती फिर से तो नही करने जा रहे। पहले की तरह फ़िल्म नगरी बनाने के नाम पर कुछ नामचीन लोगो को रेवड़ियों के भाव में प्लाट बाटे गये। एक नियम के तहत कि इतने सालों में आप स्टूडियो बनायेंगे और स्टूडियो बनाने के बाद इतने सालों बाद ही बेच सकते है 99% लोगो ने नियम का पालन किया और करोड़ो में कुछ लाख में मिली जमीन को बेच दिया। जिस लक्ष्मी स्टुडियो में मैं काम करता था उसे टी सीरीज ने खरीद लिया।

मारवाह स्टूडियो और शायद सुरेन्द्र कपूर स्टूडियो सन्दीप मारवाह चलाते है उन्होंने सही समय पर एक्टिंग स्कूल खोलकर कम से कम सस्ते में मिले प्लाट और फ़िल्म नगरी का कुछ तो मान रख लिया। गनीमत यह रही कि नोयडा फ़िल्म नगरी के फ़िल्म स्टूडियो खरीदने वाले अधिकतर लोग न्यूज़ चैनल चलाते है।

यह सही है कि स्टूडियो मालिको के पास अपने स्टूडियो बेचने के अलावा कोई चारा भी नही था। फिल्मों की टीवी सीरियल की बमुश्किल 1% शूटिंग यहाँ हुई होगी। क्यों कोई सारा ताम झाम लेकर आता और यहाँ शूटिंग करता उसे सिवाय नुकसान के कुछ हांसिल नही होता। दिग्गज LV Prasad की स्टूडियो लेब थी फ़िल्म सिटी में उन्होंने शायद यह सोचकर खोली होगी कि दक्षिण भारत की फिल्मों का काम तो उन्हें वही मिल जाता है नोयडा में खोलकर मुम्बई फ़िल्म नगरी का काम मिलने लगेगा या नियमता भी लेब बनाने की मजबूरी रही हो। 

1992/92 जब मैं उस स्टूडियो में जाता था तो एक काम बड़ी शिद्दत से होता था आप कहेंगे दक्षिण की फिल्में आती होगी वहाँ, जी नही प्रसाद स्टूडियो ने दो बहुत खूबसूरत पार्क बनाये थे बस सुबह शाम उनमें पानी दिया जाता था बहुत ही सुन्दर सुन्दर फूल लगे थे वहाँ। तीन चार माली थे एक मैनेजर। 

अन्य स्टूडियो में कोई हो न हो मैनेजर जरूर होता था। खैर हम मुद्दे से भटके उससे पहले वापस मुद्दे पर आते है। नोएडा फ़िल्म नगरी के फ्लॉप होने की मुख्य वजह थी infrastructure की। न कैमरे थे ना light थी ना इन्हें चलाने वाले लोग थे यदि थे तो उन्हें फिल्मों का अनुभव नही था कोई हिम्मत जुटाकर फ़िल्म शूटिंग का जोखिम लेता भी था तो सारे technicians मुम्बई से ही साथ लाने पड़ते थे यहाँ तक की खाना बनाने वाले भी क्योंकि उन्हें पता होता था कब कैसे क्या बनाना, देना होता है।

मुख्यमंत्री महोदय आपके पास ज्ञान देने के लिए एक से एक दिग्गज होंगे। किसी ने आपको यह सलाह नही दी कि मान्यवर मुम्बई जाने की आवश्यकता नही है हम रामोजी राव फ़िल्म सिटी हैदराबाद चलते है। हो सकता है आपका प्लान हो वहाँ जाने का यदि हो तो दो दिन का प्लान बनाकर जाइयेगा तभी आपको अंदाज़ा लगेगा कि आपकी फ़िल्म नगरी उससे बेहतर कैसे बने। 

एक दिन में तो आप अपनी कार से भी घूमेंगे तो भी आप रामोजी राव पूरा नही देख समझ पायेंगे। आपको लग रहा होगा मैं रामोजी राव का पीआर तो नही कर रहा हूँ जी नही मैं वहाँ दो बार ही गया हूँ लेकिन फिल्मों से जुड़ा होने के कारण यह कह सकता हूँ किसी को कोई फ़िल्म बनानी हो तो वो अपने स्टार लेकर वहाँ आये और जब वापस जाये तो आपको सिर्फ फ़िल्म रिलीज करनी है। 

एक ही जगह पर जब आपको हर चीज मुहैया हो तो आसानी तो हो ही जाती है। वैसे भी हैदराबाद फ़िल्म उद्योग बहुत व्यवस्थित है जिसका लाभ भी यहाँ शूटिंग करने वालो को मिलता है । रामोजी राव ने खुद को उत्कृष्ट पर्यटन स्थल भी बना दिया है वहाँ पर्यटकों के लिए बहुत से विकल्प है मनोरंजन के लिये। लोग तो इसी बात से खुश हो जाते है कि शाहरुख खान ने फलाँ फ़िल्म के लिये यहाँ शूटिंग की थी या नसीरूद्दीन और विद्या बालन की फ़िल्म डर्टी पिक्चर के गाने की शूटिंग इस पार्क में हुई थी और यह सभी शूटिंग वाली जगह आप उनकी चलती बस से देख रहे होते है। 

जब हम गये तो बस ने हमें बाहुबली के सेट पर छोड़ दिया फ़िल्म के सेट को तोड़ा नही गया था। वहाँ फ़िल्म से जुड़े तमाम कटआउट रखे थे बहुत सी शूटिंग वाले द्रश्य सेट भी छोड़ दिये गये थे उनको देखकर और फ़ोटो खींच और खिंचवा कर सब इतने खुश थे जैसे हम फ़िल्म का हिस्सा हो। हालाँकि मैं बतौर पर्यटक रामोजी राव में देखे जाने वाले विषयों से बहुत प्रभावित नही था लेकिन एक आम पर्यटक के लिए वहाँ बहुत कुछ है। मेरे लिए तो सबसे अच्छी जगह उनका रेस्टोरेंट था जिसका खाना लाज़वाब था ।

मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूँ मुख्यमंत्री महोदय जिससे आपको अंदाजा हो कि सिर्फ फ़िल्म नगरी बनाने से काम नही चलने वाला revenue भी तो आना चाहिए। आपको हमारी फ़िल्म नगरी को सफल बनाने के लिए रामोजी राव से सलाह लेनी चाहिए हॉलीवुड स्टूडियो देखने जाना चाहिए। ऐसी एजेंसियों को sign करना चाहिए जिनका अगले 50 वर्षो में फ़िल्म और ओटीटी या अन्य कैसे बदलाव आयेंगे उनपर कुछ vision हो। 

तेजी से बदलते समय के बदलाव को देखते हुए सबसे जरूरी जरूरत है विश्वस्तरीय editing स्टूडियो बनाने की। मुझे ऐसा लगता है आने वाले 50 वर्षों में सर्वश्रेष्ठ फिल्में कम्प्यूटर या उससे भी अधिक उसी तरह की आने वाली तकनीक पर बनेंगी। आज भी 60/70% फिल्में ग्राफिक्स पर ही बनती है। 

यह ठीक है कि आने वाले 8/10 वर्ष नेटफ्लिक्स अमेजन यानि OTT जैसे प्लेटफार्म का रहेगा और उसके बाद कुछ नई तकनीक देखने के लिए कुछ नए तरीके ईजाद किये जायेंगे। इसलिए बहुत बड़े स्टूडियो की जरूरत भविष्य में न पड़े लेकिन ग्राफिक्स और editing स्टूडियो इतने सुसज्जित होने चाहिए कि उनमें बदलाव सम्भव हो। 

जो भी स्टूडियो बनाये वो ग्रीन कवर हो जैसे किसी ने मुझे बताया कि लॉर्ड्स का मैदान ऐसा है कि कही भी खड़े हो कर बैटिंग करो वो पिच अपने आप बन जायेगी। 

आप हमारी फ़िल्म नगरी में आधुनिक lights आधुनिक कैमरे व अन्य आधुनिक equipments की सहूलियत उपलब्ध करवाये ऐसी व्यवस्था करे कि फ़िल्म या OTT का जो भी निर्माता आये वो सिर्फ अपने कलाकार लेकर आये और जब जाये तो उसे सिर्फ release करने भर की मशक्कत करना बाकी रह जाये।

हमारी फ़िल्म नगरी में सबसे अधिक शुरुआती दिक्कत technicians की आयेगी चाहे हम फ़िल्म बनाये या OTT material, हमें उनके लिए मुम्बई पर आश्रित रहना पड़ेगा। उसका solution थोड़ा लम्बा है लेकिन विकल्प यही है। हमें विश्वविद्यालय की जरूरत नही है बल्कि 10वीं/ 12वीं क्लास तक के छात्रों के लिए 3 - 6 - 9 और 12 महीने के short courses की जरूरत है सिर्फ practical course No theory,साथ ही जो भी शूटिंग हो उसमे उन्हें अनुभव सीखने का मौका मिलना चाहिए, साथ ही उन विद्यार्थियों को यह सुविधा भी मिलनी चाहिये कि यदि कोई नई तकनीक आये वो उन्हें सीखने को फ्री में मिलनी चाहिये। जिससे उनका आधुनिकता के साथ तारतम्य बना रहे। 

इसके अतिरिक्त सबसे जरूरी है रहने के लिए फाइव स्टार थ्री स्टार और स्टार रहित होटलों की वो भी फ़िल्म नगरी के अंदर ही। लग्जरी कार और लग्जरी बसों की सुविधा भी बहुत जरूरी है। जिससे फ़िल्म सितारे और शूटिंग स्टाफ के आने जाने के समय की बचत हो। आखिरकार समय की ही तो कीमत है। 

हरेक फ़िल्म के शूटिंग स्टाफ का life insurance compulsory हो, एक हस्पताल हो बेसिक सुविधाओं से युक्त और फ़िल्म नगरी के पास ही किसी बड़े हॉस्पिटल से करार हो जिससे सुविधाएं तुरन्त मुहैया हो सके। 

पर्यटन स्थल के रूप में फ़िल्म नगरी में आधुनिक आकर्षण जोड़े जाये जिनका संबन्ध फिल्मों से ही हो, और सबसे बड़ी बात पर्यटन किसी के लिए भी free न हो चाहे कोई अधिकारी या नेता का परिवार हो वरना इण्डियन एयर लाइन्स बनने में ज्यादा समय नही लगेगा। 

मुख्यमंत्री महोदय फ़िल्म नगरी को सफल बनाने के लिए किसी फिल्म स्टार फ़िल्म सेलिब्रिटी या फ़िल्म निर्माता की आपको जरूरत नही है आप सुविधाएं ऐसी दीजिये कि फ़िल्म के लोग मजबूर हो जाये आपकी फ़िल्म नगरी में शूटिंग के लिये। रामोजी राव से अच्छा उदाहरण और क्या मिलेगा हमें। किसी को भी किसी भी तरह का स्टूडियो बनाने के लिए जगह मत बाँटियेगा यदि आपने ऐसा किया तो दूसरी नोयडा फ़िल्म सिटी जैसा हश्र होने से कोई नही रोक सकता।


उत्तर प्रदेश में फिल्मों की शूटिंग और पैसा--

बात हो ही रही है तो लगे हाथों मैं उत्तर प्रदेश में होने वाली फिल्मों को जो रेवड़ी आप बाँट रहे है उस पर भी कर लेता हूँ। आपकी यानि फ़िल्म बन्धु की पहली शर्त होती है जिस फ़िल्म की शूटिंग आपके यहाँ हो उसके अनुसार उसे आर्थिक सुविधा दी जाती है उसके अलावा UP में आप फ़िल्म को टैक्स फ्री भी कर देते है कभी कभी, 

मेरे विचार से हमारे प्रदेश में सबसे पहली priority कहानी होनी चाहिये आप 2 करोड़ रुपये किसी ऐसी फिल्म को देते है जो उत्तर प्रदेश के किसी शहर को गुंडों आतंकवादियों का अड्डा बना दिखाते है। आप कह सकते है यह हकीकत है लेकिन हकीकत के लिए सरकार दो करोड़ देती है क्या। 

हम ऐसी कहानियों का चुनाव कर सकते है जो हमारे शहरों और प्रदेश के लिए सार्थक हो। क्या हमारे प्रदेश में ऐसे लोग नही हुए है जिन्होंने देश या विश्व मे अपना नाम रोशन न किया हो। गुंडों आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली फिल्मों की बजाय हम किसी ऐसे खिलाड़ी पर फ़िल्म नही बना सकते जिसने प्रदेश का नाम रोशन किया हो फिर उस फिल्म को चाहे अधिक ही पैसा क्यों न देना पड़े। 

अवधि, ब्रज, बुंदेली और भोजपुरी फिल्मों को बढ़ावा देना अच्छी बात है लेकिन उसके लिए फ़िल्म अच्छी और सार्थक हो तो बेहतर है यदि सरकार किसी ऐसी प्रादेशिक भाषा की फ़िल्म को पैसा देती है जैसी हर तीसरी फिल्म बन रही है तो हम इन प्रादेशिक भाषा की फिल्मों को बढ़ावा नही दे रहे बल्कि सिर्फ पैसा दे रहे जिसका कोई औचित्य नही है।

हम पर्यटन को बढ़ावा देने के अनुसार भी फिल्मों का निर्माण करवा सकते है उदाहरण के तौर पर गढ़ गंगा एक ऐसा क्षेत्र है जिसे सरकार पर्यटन स्थल के तौर पर स्थापित कर सकती है। फिल्मों और OTT प्लेटफार्म के लिए इस क्षेत्र को ध्यान में रखकर कहानी लिखी जा सकती है फ़िल्म बनाई जा सकती है। ऐसा ही उन क्षेत्रो को ध्यान में रख कर किया जा सकता है जिन्हें पर्यटन के तौर पर उभारना हो। 

बरेली की बर्फी जैसी मनोरंजक फिल्मों को बढ़ावा मिलना चाहिये हर शहर की अपनी एक कहानी होती है उसमें कुछ ऐसी विशेषताये होती है जिन्हें कहानी में पिरोया जा सकता है। हो सकता है इस तरह की कोशिशों में शुरू में समय अधिक लगे लेकिन इन फिल्मों का result बेहतर होगा ऐसी संभावना अधिक है और प्रदेश की जनता का जो पैसा सरकार निर्माताओं को देती है उसकी सार्थकता भी होगी।

मुख्यमंत्री महोदय मुझे पता है आपके पास या किसी के पास भी इतना समय नही होगा जो इतना लम्बा खुला पत्र पढ़े लेकिन मुझे जो लिखना था वो तो मैं लिखी ही सकता हूँ। कोई पढ़े या न पढ़े।


हरीश शर्मा

गोवा से

Thursday, December 3, 2020

फ़िल्म पीआर के पितामह चाचा ओमप्रकाश कत्याल

ओम प्रकाश कत्याल चाचा 

फ़िल्म पीआर में अग्रणीय नाम

एक ऐसा नाम है जिनका जिक्र किये बिना मेरी किताब अधूरी होगी। दिल्ली में फिल्मों के इनसाक्लोपीडिया थे कत्याल साहब यानि जगत चाचा, सब उन्हें चाचा कह कर बुलाते थे। फ़िल्म इतिहास की कोई भी जानकारी उनकी जुबान पर रहती थी। मीडिया के लोग अपने किसी लेख में फंसते थे तो चाचा को फोन करते थे।


दिल्ली और उत्तर भारत के सबसे बड़े पीआरओ वही थे। मेरी उनसे पहली मुलाकात शायद होटल मौर्या दिल्ली में हुई थी 1993 अप्रैल में, मुझे पिथौरागढ़ से आये कुछ ही समय हुआ था। नोएडा फ़िल्म सिटी में नोकरी के चलते अनिल कपूर के जीजा संदीप मारवाह से मुलाकात होती रहती थी।

उन्होंने ही मुझे फ़िल्म रूप की रानी चोरो का राजा की प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिये बुलाया था। फाइव स्टार होटल, फ़िल्म स्टार्स यह सब बरेली और पिथौरागढ़ जैसे शहर से आये लड़के के लिए सपने जैसा था। मुझे याद है जब मैं दिल्ली आया था तो मन किया फाइव स्टार होटल कैसा होता है उसे देख जाये।

अख़बार के  दैनिक सूची में देखा हयात होटल में पेन्टिंग प्रदर्शनी लगी थी जहाँ जाना फ्री था सोचा इसके बहाने फाइव स्टार देख लिया जाये। जब वहाँ गया तो पता चला हयात के जिस हॉल में प्रदर्शनी लगी थी उसका रास्ता होटल के अंदर से नही सड़क से ही था लिहाज़ा फाइव स्टार देखने का सपना पूरा किया सन्दीप मारवाह ने। 

तो बात रूप की रानी चोरों का राजा की चल रही थी। प्रेस वार्ता में बमुश्किल 50 पत्रकार होंगे जिसमें मैं अकेला ऐसा पत्रकार था जो सिर्फ सन्दीप मारवाह को जानता था। उस दिन मैंने अनिल कपूर,बोनी कपूर, बाबा आजमी, जावेद अख्तर, सुरेन्द्र कपूर और सतीश कौशिक को देखा उनकी बातें सुनी कुछ समझ आयी कुछ बाउंसर हो गई। 

अजीब लगा जब बात फ़िल्म की हुई तो बताया गया यह अभी तक की सबसे महँगी फिल्मों में से एक है 9.2 करोड़ की, इससे पहले फ़िल्म अजूबा सबसे महँगी थी 8 करोड़ की जिसने बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नही माँगा था। उस समय 1 से 2 करोड़ की फिल्में बनती थी।

रूप की रानी की प्रेस वार्ता में जो बात मुझे बहुत अखरी कि 50 में से करीब 45 पत्रकार हिन्दी के थे जिसमें से सिर्फ एक या दो पत्रकारों ने एक एक प्रश्न पूछा बाकि पूरी प्रेस कांफ्रेंस में अंग्रेजी के पत्रकार ही गिटपिट करते रहे। इसके बाद मैंने यह निश्चय किया कि किसी भी प्रेस वार्ता में सबसे पहला और कई प्रश्न हिन्दी में मैं पूछा करूँगा और मुझे खुशी है कि मैंने पत्रकार रहते अपनी यह जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाई यही नही पीआर के दौरान भी हिन्दी पत्रकारों को खूब बढ़ावा दिया।

ऐसा नही है कि मुझे अंग्रेजी या अंग्रेजी पत्रकारों से कोई गुरेज हो लेकिन मुझे लगता था हिन्दी पत्रकारों में कुछ संकोच होता था वो भी सिर्फ पहले प्रश्न पूछने का, उसके बाद तो यह बहुत खतरनाक हो जाते है जिनको संयमित रखना आसान नही था।

तो बात चाचा की चल रही थी। जब हम मौर्य होटल में थे तो मीडिया के सभी पत्रकार चाचा के बुलाये हुए थे मैं अकेला अलग थलग, चाचा को लगा यह लड़का बिना बुलाया मेहमान है वो मुझे प्रश्नवाचक बन कर घूर रहे थे। क्योंकि जो भी आता वो चाचा से मिलता चाचा अपने प्लास्टिक के बैग से फ़िल्म का ब्रोशर निकाल कर देते और किस जगह प्रेस वार्ता है बताते।

मैं अभी सोंच ही रहा था क्या करूँ तभी सामने से आते सन्दीप मारवाह दिख गये उन्होंने मुझे देख लिया फिर चाचा से मिलवाया यह हरीश शर्मा है नोयडा के पत्रकार है। चाचा ने अजीब सा मुँह बनाया कि मेरे बिना बुलाये कैसे कोई पत्रकार आ सकता है लेकिन सन्दीप मुझे अपने साथ अन्दर ले गये।

मेरी पहली ग्लैमरस प्रेस कॉन्फ्रेंस थी तो उस समय की बहुत सी यादें है। मैं सबसे पीछे की सीट पर बैठा था हॉल छोटा सा था एक स्क्रीन भी थी जिस पर गाने दिखाये गये थे। अनिल कपूर का एक उत्तर आज भी याद है एक महिला पत्रकार ने पूछा था कि आप इस मुकाम पर है कि आर्ट फिल्में भी कर सकते है तो सिर्फ कमर्शियल फिल्में ही क्यों कर रहे है ?

अनिल ने कहा मुझे एक ही परिभाषा पता है अच्छी फिल्म या बुरी फ़िल्म। मुझे जो भूमिका पसंद आती है वो मैं करता हूँ। फिर अनिल ने एक प्रश्न उस पत्रकार से ही पूछ लिया ईश्वर को आप कैसी फ़िल्म मानती है ?

उस पत्रकार ने कहा ईश्वर तो मीडिल लाइन फ़िल्म थी अनिल बोले बस मुझे ऐसी ही मीडिल लाइन फिल्में पसन्द है तभी एक अन्य पत्रकार ने पूछा 1942 लवस्टोरी को क्या मानते है ? 

अनिल कपूर का जवाब था विदु विनोद चोपड़ा तो इसे पूर्णतया कमर्शियल फ़िल्म कहते है लेकिन मैं इसे मिडिल लाइन फ़िल्म मानता हूँ।

मुझे पहली बार पता चला कि कला और व्यावसायिक फिल्मों के अलावा एक और तरीके की फ़िल्म होती है मध्य पंक्तियों की फ़िल्म हालांकि मैंने अपने 20 वर्षो के फिल्मी जीवन में यह मीडिल लाइन फिल्मों की चर्चा बहुत अधिक नही सुनी।

रूप की रानी जब रिलीज हुई तो मुझे फिर सन्दीप मारवाह ने प्रेस शो के लिये बुलाया उस सिनेमाघर में चाचा के बुलाये ही पत्रकार आये हुए थे। इस बार मैं चाचा के पास गया वो बोले तू फिर आ गया चल ले टिकट अंदर बैठ कभी ऑफिस में आकर मिल।

वैसे भी चाचा टिकट देने के मामले में उदार थे कई पत्रकार तो बीबी बच्चों सहित आ जाते थे लेकिन कभी उन्होंने किसी को न नही कहा। ये बातें मुझे उन्हें सही से जानने के बाद बाद में पता चली थी।

रूप की रानी देखी फ़िल्म के बारे में तो क्या कहूँ 3 घण्टे 10 मिनट की फ़िल्म ने पका दिया था । निकलते गेट के बाहर ही चाचा खड़े थे सबसे पूछते हाँ भई कैसी लगी सभी पत्रकार सिर झुकाये कहते हुए निकल जाते बहुत अच्छी। 

मेरा नम्बर आया तो मैंने कहा समोसे और कोल्डड्रिंक बहुत अच्छी थी चाचा, मैं ऑफिस में मिलता हूँ। उस फिल्म को देखने के बाद पता चला यार यह तो बहुत अच्छा है कोई भी फ़िल्म हो पहला दिन पहला शो देखो इंटरवेल में दो समोसे कोल्डड्रिंक या चाय पियो न टिकट की लाइन का झंझट न हाउसफुल की चिन्ता। और यदि शो

रूप की रानी ने 2.70 करोड़ का धन्धा किया। असफलता का ठीकरा आधी फ़िल्म के निर्देशक सतीश कौशिक पर फोड़ा गया। आधी इसलिए कि पहले इस फ़िल्म के निर्देशक इसी टीम को सुपरहिट फिल्म मि इंडिया दे चुके शेखर कपूर थे लेकिन ये फ़िल्म उन्होंने अधर में छोड़ दी तो शेखर के सहायक रहे और अनिल कपूर के दोस्त सतीश ने यह जिम्मेदारी ली।

चाचा से उनके ऑफिस में मुलाकात हुई । चाँदनी चौक में एक थोक के बाजार में कोई 10 सीढ़ी चढ़कर उनका ऑफिस था। 

उनके ऑफिस के सामने दिल्ली के बड़े फिल्म वितरक बॉबी आर्ट का आफिस था। चाचा ने पहले अपना आफिस दिखाया बताया इसका किराया है 150 रुपये फिर वो रुके बोले 150 रुपये साल।

उनकी एक अलमारी थी जिसमें वो हमेशा ताला लगाकर रखते थे म्यूजिक कैसेट का जमाना था म्यूज़िक कम्पनी म्यूज़िक समीक्षा के लिये कैसेट देती थी उसी खजाने को चाचा आलमारी में रखते थे। 

उस दिन चाचा ने काफी पिलायी, परिवार के विषय मे पूछा । उस दिन चाचा ने मुझे झोली भरकर म्यूज़िक कैसेट दिए और ढ़ेर सारे फिल्मों के फोटो । चाचा का मुख्य काम अखबारों में फ़िल्म के विज्ञापन छपवाने का था साथ ही फिल्मो के पीआरओ हो गये थे। 80 और 90 दशक के वो सबसे बड़े पीआरओ थे इसमें कोई अतिश्योक्ति नही थी। 

थोड़ा ज्यादा पीछे जाये तो पता चला चाचा का जन्म 1936 में पाकिस्तान में हुआ था। अपने परिवार के साथ बँटवारे के समय लाहौर से 195 किमी दूर झंग नामक जगह से लुधियाना पहुँचे जहाँ काफी संघर्ष किया दुकानों में झाड़ू पोछा तक लगाया। 

बेहतर भविष्य की तलाश में दिल्ली आ गये। उस समय दिल्ली के मल्कागंज में भी पाकिस्तान से आये लोगो को मकान दिए गये थे। कुछ समय रहने के बाद माहौल अच्छा न होने के चलते परिवार आजादपुर मंडी में आकर किराए के मकान में रहने लगे। उस समय वो इलाका जंगल ही था। दिल्ली में ही उनकी शादी हुई।

चाचा ने प्रसिद्ध फ़िल्म पत्रिका रंगभूमि में 100 रुपये महीने की कुछ समय तक नोकरी की फिर अपनी मौसी के लड़के एस एस मुनव्वर जो फ़िल्म वितरक और पीआरओ थे के साथ काम करने लगे। 

एक सड़क दुर्घटना में मुनव्वर साहब का इंतकाल हो गया। चाचा भी उसी कार में थे दो महीने तक घर में रहकर इलाज कराते रहे। 

उस समय तक चाचा विज्ञापन और पीआरओ का काम काफी हद तक सीख गये थे। एक समय ऐसा भी आया कि 75% फिल्मों के विज्ञापन और पीआरओ का काम वही करते थे । चाचा ने करीब 3/400 फिल्मों का काम किया होगा।

अपनी मदद के लिए उन्होंने एक प्रतिभाशाली युवक राजकमल को अपने साथ रख लिया जिन्होंने बाद में फ़िल्म अखबार मिनी फ़िल्म रिपोर्टर निकाला।

चाचा ने अपने भाई के बेटे आनन्द को गोद लिया और उसे काम सिखाया। आनन्द ने बताया एक तो मैं पढ़ाई में अच्छा नही था ऊपर से हरेक फ़िल्म देखने को और खाने पीने को मिलने लगा तो मैं फिल्मों का ही होकर रह गया।

आनन्द ने बताया चाचा ने इज्जत और पैसा खूब कमाया यही वजह है कि आज काम करने का अंदाज़ बदलने के बावजूद यशराज का काम अभी भी हमारे पास है और यह यशराज फिल्म्स का बड़प्पन है कि फ़िल्म उद्योग में इतने बड़े मुकाम पर होने के बाद भी आज वो हमारे साथ है और रहेंगे।

मेरी जब चाचा से मुलाकात हुई उस समय चाचा की उम्र करीब 60/62 वर्ष होगी। आवाज उनकी कड़क थी उससे कभी कभी लगता था वो कड़वा बोलने वाले है लेकिन कुछ मुलाकातों के बाद पता चला वो ऊपर से कड़क अंदर से नरम है।

जल्दी ही मेरी उनसे अच्छी पटने लगी। मैं उनके हरेक फिल्मी कार्यक्रम का हिस्सा हो गया। हालाँकि यह बात बहुत से पुराने पत्रकारों को हजम नही हुई। लेकिन इससे उन्हें या मुझे कोई फर्क नही पड़ा। उनकी अनुभवी आखों ने पढ़ लिया था यह लड़का कुछ करेगा। 

प्रतिभाशाली पत्रकार उनके यहाँ लगातार बैठकी लगाते थे ख़ासकर बृहस्पतिवार को क्योंकि शुक्रवार को फ़िल्म के शो होते थे उसके टिकट चाचा गुरुवार को भी दे देते थे जो उनके दरबार में आता था लिफाफे भी मिलते थे लिफाफों की बात किसी अन्य पेज पर।

जो पत्रकार चाचा के पास लगातार आते थे उनमें दो नाम तो मुझे याद है चंद्रमोहन शर्मा जो वीर अर्जुन में थे आज नवभारत टाइम्स में है उनको फिल्मों की सटीक समीक्षा के लिए जाना जाता है और रवि पाण्डेय सान्ध्य टाइम्स में थे, यह उस समय की ऐसी जोड़ी थी जिसे आप शोले के जय वीरू भी कह सकते है। एक को ढूंढ लो तो दूसरा खुद ही मिल जाये। चन्द्र और रवि जब कही नही मिलते थे इसका मतलब वो चाचा के यहाँ पाये जायेंगे और ऐसा ही होता था। 

रवि पाण्डेय बाद में कनाडा चले गये वो वहाँ हिन्दी Abroad के नाम से बहुत प्रतिष्ठित अखबार निकालते है दूसरे मुल्क में जाकर जो नाम रवि पाण्डेय ने बनाया है उस पर हम लोगो को गर्व होना चाहिये। मैं अपने अभिनेता मित्र हेमन्त पाण्डेय और टीवी सीरियल निर्माता केवल सेठी के साथ उनके कनाडा वाले बंग्ले में रहे थे जो आव भगत उन्होंने की उसे कभी नही भुलाया जा सकता है। यह किस्सा कनाडा फ़िल्मोत्सव पेज पर विस्तार से।

चाचा का ऑफिस खुला दरबार था फिल्मों के ऐसे ऐसे किस्से उन्हें पता थे जिनको जोड़कर एक दो किताबें निकाली जा सकती थी। चाचा हमेशा सफारी सूट में होते थे और सर्दियों में टी शर्ट कोट पेण्ट में। उन्हें मुगले आजम के हर किरदार के डायलॉग मुँह जुबानी याद थे जब मूड में होते तो पूरे तरन्नुम में बाकायदा अभिनेताओं की स्टायल में बोलकर सुनाते थे। उन्होंने ही बताया था कि मुगले आजम की टिकट खरीदने के लिए लोग दो दिन तक लाइन में लगे रहे थे। कैसा जुनून रहता होगा फिल्मों के लिये।

चाचा को भी जब कभी टीवी मीडिया की जरूरत होती वो मुझे बोलते थे सहयोग करने को। 

मुझे याद है एक बार 8 बजे उन्होंने फोन किया घर पर आदेश दिया कल सुबह 10 बजे प्रगति मैदान में हिन्दुस्तानी फ़िल्म के प्रचार के लिए कमलाहसन आ रहे है जिन्हें बुला सकते हो बुला लो। मैं फोन करने बैठा तो 12 बज गये जिस पत्रकार को 12 बजे फोन किया वो बोले यह कौन सा टाइम है फोन करने का मैंने भी बिना कुछ बताये सॉरी बोलकर फोन काट दिया। 

अगले दिन मीडिया का हुजूम देखकर चाचा खुश हो गये और बड़प्पन देखिये कमलाहसन से मिलवाया यह बोलकर कि यह सारा मीडिया इन्होंने ही बुलाया है।

विधु विनोद चोपड़ा की करीब फ़िल्म का म्यूजिक लॉन्च था दिल्ली से दूर किसी फार्म हाउस पर टिप्स म्यूजिक कम्पनी द्वारा, चाचा ने मुझे बोला हरीश टीवी मीडिया की जिम्मेदारी तेरी।

मैं शुरू में उनसे मिलता रहा लेकिन धीरे धीरे व्यस्तता बढ़ती गई मुलाकाते कम होती गई लेकिन फिल्मों के शो में उनसे बराबर मुलाकाते होती रहती थी मैं अपने किसी भी पीआर इवेन्ट, फ़िल्म शो आदि में उन्हें बुलाना नही भूलता था वो आते भी थे। यही उनका बड़प्पन था।

वो चाहते थे मैं उनके ऑफिस में पहले की तरह आया करू कभी जाता भी था। लेकिन काम की व्यस्तता ऐसी बढ़ती गई कि समय कम पड़ने लगा।

2008 में मैं दिल्ली से मुम्बई चला गया तो सिलसिला टूट ही गया एक दो बार फोन पर ही बात हुई थी। 12 नवम्बर 2010 को मुझे उनके न रहने की खबर मुम्बई में मिली तो मैं खुद को उनके अन्तिम दर्शन करने से रोक नही पाया और दिल्ली आया। 

चाचा 74 वर्ष की उम्र में इस दुनियां को अलविदा कह गये।

मेरी आने वाली किताब 20 years of Entertainment PR से

हरीश शर्मा

Wednesday, October 7, 2020

पहली डिजीटल जिंगल प्रतियोगिता कैलाश खेर के साथ

पहली डिजिटल जिंगल गायन प्रतियोगिता
विजेता को 2 लाख रुपये का इनाम 
कैलाश खेर के साथ वीडियो में गाने का मौका

कोविड 19 ने दुनियां भर को हैरान परेशान कर रखा है लेकिन ऐसी विषम परिस्थितियों में भी कुछ नया करने का जुनून बाकी है इसी कड़ी में नॉरिश फूड ने ईजाद की है पहली डिजिटल जिंगल गाने और बजाने की प्रतियोगिता। विजेता को मिलेगा 2 लाख रुपये का ईनाम, नॉरिश फूड गिफ्ट हैम्पर साथ ही पदमश्री गायक कैलाश खेर के साथ गाने और विडियो में दिखने का मौका। प्रतियोगिता में निशुल्क भाग ले सकते है।इस प्रतियोगिता को तीन भागों में बांटा गया है पहले भाग में 6 से 10 वर्ष, दूसरे भाग में 11 से 14 वर्ष और तीसरे भाग में 15 से 18 वर्ष उम्र के प्रतियोगी भाग ले सकते है।

प्रतियोगिता के अनुसार कैलाश खेर द्वारा गाये न्यूट्रिशन की सरगम गाने को प्रतिभागियों को अपनी आवाज में गाना है या  वाद्य यंत्रों से भी सुर दिये जा सकते है । प्रतिभागियों को अपने गाने या वाद्य यंत्र पर बजाए गाने का वीडियो प्रतियोगिता में शामिल करने के लिए ऑनलाइन भेजना होगा।

प्रतिभागी इस एंथम गीत को नॉरिश की वेबसाइट www.nourishstore.co.in या सोशल मीडिया चैनल के साथ कैलाश खेर के सोशल मीडिया चैनल पर भी पा सकते है। 

प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए प्रतिभागियों को इवेन्ट माइक्रोसाइट पर रजिस्टर करना होगा और अपना वीडियो भी इसी माइक्रोसाइट पर पोस्ट करना होगा।

प्रतियोगिता में शामिल प्रत्येक एंट्री को संगीत विशेषज्ञों की टीम सुनेगी और प्रत्येक भाग से सर्वश्रेष्ठ 30 प्रतिभागियों का चुनाव करेगी। सभी चुने हुए प्रतिभागी अगले राउंड जिसे बैटल राउंड नाम दिया गया है में शामिल होकर ज़ूम जैसे प्लेटफार्म पर लाइव परफॉर्म करेंगे। इस राउंड में दर्शक भी अपने चहेते गायक को वोट दे सकते है। 
90 प्रतिभागियों को 8 चरणों मे भाग लेने के बाद सर्वश्रेष्ठ 9 प्रतिभागी चुने जायेंगे। इन चुने हुए 9 प्रतिभाशाली गायकों में से प्रत्येक भाग के सर्वश्रेष्ठ गायक की घोषणा कैलाश खेर फेसबुक लाइव इवेंट में करेंगे और चुने हुए तीन गायको को अपने साथ वीडियो में गाने का निमंत्रण भी देंगे।

नॉरिश फूड के कार्यकारी निदेशक आशीष खण्डेलवाल का कहना है  नॉरिश बच्चों को स्वस्थ रखने के साथ ही प्रतिभाशाली बच्चों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका भी मिलता रहे ऐसा हमारा सोचना है । हम भविष्य में भी ऐसी प्रतियोगिता करते रहेंगे।
कैलाश खेर ने इस मौके पर कहा मैं नॉरिश और आशीष जी को इस संगीत प्रतियोगिता के लिए बधाई देता हूँ और धन्यवाद देता हूँ कि मुझे प्रतिभाशाली गायको को सुनने चुनने का मौका दिया। मुझे उम्मीद है इस प्रतियोगिता में बच्चे और युवा गायक बड़ी संख्या में शामिल होकर अपनी प्रतिभा निखारेंगे।

एच एस सी


Saturday, September 5, 2020

यह हाथ क्या कहता है

यह जिसका भी हाथ है उसे पढ़ाई छोड़े हुए करीब 5 वर्ष हो गये है लेकिन खास बात यह है कि यह बालक फिर से पढ़ाई करेगा कोई course, अध्यात्म के प्रति रुझान, कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने की रुचि जागेगी।
पहली मुख्य रेखा देखिये इसे ह्रदय रेखा कहते है जिस अंतिम स्थान से यह रेखा मुड़ कर ऊपर गुरु पर्वत की तरफ जा रही है इसका मतलब है इसे कुछ तो पढ़ना ही है ।

अगले दो वर्षों में जिस स्थान से रेखा मुड़ी है वहाँ से एक रेखा निकल कर सीधी जायेगी। इस बालक का दिल बहुत बड़ा है मदद करने को त्तपर लेकिन जब सीधी रेखा नजर आने लगेगी उस समय  लोगो की मदद के साथ साथ यह दान दक्षिणा देने के लिए भी आगे रहेगा। 

आने वाले समय मे बालक की आमदनी सिर्फ एक कार्य से नही बल्कि अन्य कार्यो से भी होगी। इसे अचानक धन प्राप्ति भी होगी।

इसी हाथ पर चर्चा जारी रहेगी अगली post में।

Tip - हथेली में खुजली मचे तो यह न समझे कि धन आयेगा या शुभ अशुभ कुछ है बल्कि यह संकेत है कि हाथ की रेखा बदली है।

हरीश शर्मा

Tuesday, September 1, 2020

सन्तान रेखायें

हस्तरेखा ज्ञान 

सन्तान रेखा 

सन्तान रेखा के लिये आमतौर पर विशेषज्ञ चन्द्र क्षेत्र जो शुक्र क्षेत्र के सामने होता है के अंत मे देखते है लेकिन आप पहले मणि बंध के बीच मे जीवन रेखा के पास की लाइन देखे साथ ही अँगूठे की जड़ में शुक्र पर्वत और बुद्ध पर भी देखे।


तीन या कम से कम दो स्थान पर एक सी रेखा अवश्य होगी। यदि रेखा पतली और लम्बी है तो कन्या जन्म की संभावना है छोटी साफ सुथरी गहरी रेखा हो तो पुत्र की संभावना है 

तीनों या दो स्थानों पर जितनी स्पष्ट रेखायें हो उतनी ही संतान होने की संभावना होती है।

जीवन रेखा यदि शुक्र पर्वत का विस्तार करती हो तो सन्तान होने के शुभ संकेत है। 

बुद्ध क्षेत्र यानि सबसे छोटी उँगली के नीचे की रेखाएँ भी सन्तान के विषय मे जानकारी देती है। सूक्ष्म रेखाओं को मैग्निफाइंग ग्लास से देखना सटीक जानकारी देने में सहायक होता है।


दोनों हाथ देखने चाहिये जिससे रेखाओं की स्थिति साफ हो सके। 

Tip - रात को सोते समय पूर्ण दिन को धन्यवाद कहे आज का दिन बेहतर था कल का दिन बेहतरीन होगा । 

हरीश शर्मा




Friday, August 28, 2020

शुक्र पर्वत का महत्व

हस्तरेखा ज्ञान 

शुक्र पर्वत का महत्व

हाथ में जितनी रेखाएँ है पर्वत है सब में बदलाव होते रहते है।

किसी का भी हाथ हो यह अवश्यम्भावी है। हथेली में सात पर्वत होते है। सूर्य पर्वत, चन्द्र पर्वत, मंगल पर्वत, बुध पर्वत, गुरु पर्वत, शुक्र और शनि पर्वत।

आज शुक्र पर्वत की बात करते है। शुक्र पर्वत अँगूठे के निचले भाग को कहते है। 


शुक्र पर्वत सुविकसित हो यानि न बहुत उभरा न बहुत दबा तो ऐसे व्यक्ति सुख सम्पन्नता, उत्तम स्वास्थ्य, स्त्री पुरुष के बीच समुधर संबंध होते है। संगीत कला में व्यक्ति की रुचि होती है। भावनात्मक संबंध, सरल मन विचार, दुसरो को मदद सहयोग करने वाला, भावुक होते है।

यदि शुक्र क्षेत्र विकसित न हो, सख्त हो तो व्यक्ति कठिन कार्य करने वाला होगा, साथ ही व्यभिचारी, कठोर, असंयमी और रूखा बोलने वाला होगा। ऐसे में यदि हथेली का रंग पीलापन लिए हो तो ऊपर लिखे अवगुण में इजाफा होता है।

यदि शुक्र क्षेत्र अत्याधिक विकसित हो तो व्यक्ति आराम तलब, आलसी, सैक्स के प्रति बहुत अधिक रुचि जिसके अंतर्गत वो गलत कदम उठाने से भी संकोच नही करेंगे। ऐसे में यदि हथेली का रंग लाल हुआ तो ऐसे व्यक्ति कामवासना के प्रति बहुत खतरनाक हो सकते है। 

आमतौर पर शुक्र पर्वत आकर्षक दिखने वाला व्यक्ति सौन्दर्य प्रेमी होता है किसी भी स्थान पर सौंदर्य खोज लेते है। सुविधा संपन्न जीवन प्रेमी होते है।

यदि शुक्र पर्वत पर स्पष्ट खड़ी रेखायें हो तो व्यक्ति कई विदेश यात्रायें अवश्य करेगा। आमतौर पर विदेश यात्रा के लिए चन्द्र पर्वत की रेखाओं को देखा जाता है पर मेरा अनुभव कहता है कि शुक्र पर्वत भी विदेश यात्रा के लिए महत्वपूर्ण है।


जन्मपत्री में मजबूत शुक्र हो तो व्यक्ति फैशन, पर्यटन, कम्प्यूटर, हस्तशिल्प, सिनेमा, संगीत, कला, ज्वैलर्स व्यापार, जनसंपर्क, रक्षा तकनीक जैसे क्षेत्रों में रोजगार या व्यापार में जाने की संभावना अधिक होती है।

Tip - सिर दर्द होने पर गर्म पानी पिये, नाक के एक छिद्र को दबाकर 15 बार फिर दूसरे छिद्र से 15 बार फिर 11 बार साधारण अनुलोमविलोम करे सिर दर्द गायब।

हरीश शर्मा

Tuesday, August 25, 2020

हस्तरेखा ज्ञान हाथ की रेखाएँ

हस्तरेखा ज्ञान 

हाथ की रेखायें

आज जानेंगे हाथ की मुख्य रेखाओं के विषय में। आमतौर पर हम सभी हाथ की चार रेखायें तो जानते ही है।

1 जीवन रेखा

2 मस्तिष्क रेखा

3 ह्रदय रेखा

4 भाग्य रेखा

इन चार महत्वपूर्ण रेखाओं के साथ 10 अन्य महत्वपूर्ण रेखाएँ होती है उनको भी जानना जरूरी है लेकिन आज हम चार रेखाओं की ही बात करते है।


1 जीवन रेखा को पितृ रेखा और कुल रेखा भी कहते है यह रेखा अँगूठे और हाथ की पहली उँगली जिसे तर्जनी कहते है के बीच से निकल कर अर्धचंद्राकार रूप लेकर हथेली के बीच से होती हुई हथेली की जड़ तक जाती है। जितनी अधिक गोलाई और साफ सुथरी जीवन रेखा उतना ही साफ सुथरा जीवन। विस्तार से फिर चर्चा करेंगे पहले रेखाएँ जान लेते है।


2 मस्तिष्क रेखा को शीर्ष और मानस रेखा भी कहा जाता है लेकिन मस्तिष्क रेखा ही प्रचलित है। यह रेखा अँगूठे और तर्जनी के बीच से जीवन रेखा के साथ निकल कर ह्रदय रेखा के नीचे और जीवन रेखा की तरफ थोड़ा सा झुकाव लिये होती है। 

जितनी सुन्दर साफ सुथरी और लम्बी मस्तिष्क रेखा होगी व्यक्ति उतना ही बुद्धिमान और शुद्ध मन होगा। विस्तार से चर्चा करेंगे


3 ह्रदय रेखा नाम से प्रचलित इस रेखा को आयु रेखा नाम भी दिया गया है। मुख्य रेखाओं में हथेली में सबसे ऊपर वाली रेखा जो सबसे छोटी उँगली के नीचे से निकल कर पहली उँगली तर्जनी के नीचे तक जाती है ह्रदय रेखा कहलाती है। रेखा की स्पष्टता देखकर आप अंदाज लगा सकते है कि हरेक ह्रदय कुछ कहता है। विस्तार से चर्चा करेंगे।


4 भाग्य रेखा जिसे शनि रेखा भी कहते है में हरेक व्यक्ति की रुचि सबसे अधिक होती है। शनि यानि कर्म, मेहनत, गाना है न जैसा  कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान यह है गीता का ज्ञान। भाग्य और कर्म एक दूसरे के पूरक है। लेकिन अच्छे कर्म बेहतर भाग्य बनाते है यह निश्चित है। 

विस्तार से चर्चा करेंगे प्रत्येक रेखा की उनके फल की। पहले आप सारी रेखाएँ तो समझ लीजिये।

Tip - ध्यान शुरू कीजिए बहुत आसान है सुबह उठने के बाद और रात सोने से पहले बिस्तर पर बैठ कर सिर्फ एक मिनट आँखे बंद कीजिये। आने दीजिये अच्छे बुरे विचारों को बस आँखे मत खोलिये, धीरे धीरे समय बढ़ता जायेगा विचार कम होते जायेंगे। 

शुरू कीजिये शीघ्र ही आनन्द आने लगेगा।

कल मिलते है।

नोट - सभी चित्र सौजन्य पुस्तक हस्तविचार से।

हरीश शर्मा

Sunday, August 23, 2020

हस्तरेखा ज्ञान

हस्तरेखा ज्ञान 

सामुद्रिक शास्त्र यानि हस्तरेखा वास्तव में समुद्र जितना गहरा है लिहाजा हमारा साथ लम्बा होने वाला है।

आज बात करते है हाथ की मुद्राओं की सरल आसान लाभदायक

अनामिका मुद्रा

अनामिका मुद्रा जिसे रवि मुद्रा भी कहते है। अनामिका यानि सबसे छोटी उँगली के बाद वाली उँगली उसको मोड़िये अँगूठे से दबाये हथेली के बीच मे जितनी देर आराम से दबा कर रख सके रखिये शेष उंगलियों को सीधा रखें । 


इसका लाभ होगा यदि आप tension, stress में है या मोटापा कम करना चाहते है आराम से बैठकर करिये जो लोग जमीन पर बैठ सकते है बैठकर करे नही तो जैसे कर सकते है करे जरूर, 1 मिनट 2,3,4,5,10 मिनट तक । कोशिश करे कि जिस स्थान पर करें गर्मी न हो। करने में दिक्कत महसूस हो तो न करे।

ईहा मुद्रा 

ईहा मतलब पृथ्वी भूमि जमीन मुद्रा, वज्रासन में करेंगे तो लाभ अधिक होगा नही बैठ पाये तो जैसे आसानी हो करे। अनामिका यानि सबसे छोटी के बाजू वाली उँगली और अँगूठे के tip को मिलाये बाकी उंगलियां सीधी रखे। जितनी देर आसानी से कर पाये करे लेकिन 15- 20 मिनट से अधिक न करे।


इस मुद्रा से तुतलाना, हकलाना, बोलने में संकोच होता हो, weakness हो lazy feel कर रहे हो,पाचन सही न हो में लाभ मिलता है।

जीवन मुद्रा 

जीवन यानि प्राण, life इस मुद्रा में आराम से बैठ जाये जमीन पर या जहाँ सुविधा हो। कनिष्ठ यानि सबसे छोटी और अनामिका मतलब उसके बाजू वाली अब इन दोनों उँगली को मिला ले और अँगूठे से दोनों उँगली के नाखून वाले भाग को हल्के से दबाये, बाकी दोनों उँगली सीधी रखे।


Heart blockage, आँखों के रोग, concentration करने में परेशानी हो, भूख पर नियंत्रण न हो तो यह मुद्रा करे तो लाभ मिलेगा।

Tip - पहले दिन मैंने सलाह दी थी 11 बार ॐ और अनुलोम करने की उसमे यह जोड़ लीजिये कि रात को दोनों प्रक्रिया करते समय वज्रासन में बैठ कर करिये इससे अतिरिक्त लाभ होगा पाचन क्रिया सही रहेगी साथ ही एकाग्रता में विकास होगा।

हरीश शर्मा

Saturday, August 22, 2020

हस्तरेखा ज्ञान


हस्तरेखा ज्ञान 
आज बात करते है हाथ के अँगूठे की -

1- कुछ लोगो के अँगूठे पीछे नही मुड़ते है ऐसे लोग जो निश्चित कर लेते है वही final होता है वो किसी की नही सुनते। कुछ हद तक जिद्दी होते है।

ऐसे लोग अपने निर्णयों पर स्थिर रहते है अधिकतर इनके निर्णय सही भी होते है। यह लोग किसी से गुस्सा हो जाये तो बहुत समय तक नाराज रहते है। बहुत मुश्किल से माफ करते है। 

2- कुछ लोगो के अँगूठे लचीले होते है आसानी से पीछे मुड़ जाते है ऐसे लोग खुद को कही भी बहुत जल्दी adjust कर लेते है। किसी से नाराज हो जाये तो बहुत जल्द भूल जाते है। समझदार होते है लोग इनकी बात सुनते है अमल करते है।

ऐसे लोग किसी की सलाह आसानी से मान जाते है यानि दृण निश्चयी नही होते है भावुक होते है अपनी कमी और गलतियों को स्वीकारने वाले होते है।

3- कुछ लोगो के अँगूठे होते ही पीछे है लचीले इतने कि कितना ही मोड़ लो फ़ोटो में देखे । 

ऐसे लोगो का गुस्सा कपूर की तरह है तुरन्त उड़ जाता है। गुस्सा कम आता है लेकिन जब आता है तो कुछ मिनट इन्हें संभालना कठिन होता है लेकिन कुछ देर में यह शान्त हो जाते है और अपने गुस्से पर अफसोस जाहिर करते है।

यह लोग भावुक होते है इनके पास पैसा है तो बिना सोच विचार के किसी की भी मदद कर सकते है। दयालु होते है किसी तरह की कोई जोर जबरदस्ती नही करते।

काम के प्रति लापरवाह होते है लेकिन एक बार निश्चय कर लिया तो काम को अन्जाम देकर ही दम लेते है।


4- कुछ लोगो के अँगूठे बीच से पतले होते है और नाखून वाला हिस्सा चौड़ा होता है 

ऐसे लोग की बुद्धि तेज होती है। प्रतिभाशाली होते है। सीखने की प्रवृत्ति तेज होती है भविष्य के प्रति अधिक सजग होते है।

किसी को भी ईमानदारी से सलाह देते है और लोग इनकी सलाह को मानकर लाभ भी उठाते है। गुस्सा इनका खतरनाक होता है खुद को भी चोट पहुँचा सकते है। 

5- नाखून वाला भाग मोटा देखने मे अजीब लगता है यह लोग कम बोलते है गुस्से में क्या कुछ कर जाये कहा नही जा सकता। किस के प्रति क्या दुर्भावना लेकर बैठे है कहना मुश्किल है। 

यह लोग अपनी बात किसी से नही कहते न किसी की सलाह लेते न देते सिर्फ action में विश्वास करते है । लोग ऐसे लोगो से दूर रहना ही पसंद करते है।

यह लोग किसी पर भरोसा कर ले तो उसके लिये कुछ भी कर सकते है कुछ भी मतलब कुछ भी।


Tip- सुबह उठ कर अवश्य बोले आज मेरा दिन शुभ हो।

कल मिलते है।



हस्तरेखा ज्ञान


आज से मैं हस्तरेखा के आसान से tips आप लोगों को दिया करूँगा जिससे आप भी खुद ही अपना हाथ पढ़ पाये।

हाथ के फ़ोटो में अँगूठे के नीचे के भाग को शुक्र पर्वत कहते है हाथ को अच्छे से धोकर साफ करके देखिए कोई नीलापन तो नही है यदि नही तो आपकी आर्थिक स्थिति सही है बशर्ते कि शुक्र पर्वत उभार लिए हो। (फ़ोटो में देखे लाल गोल)

यदि कोई नीलापन दिखे तो सतर्क हो जाये पैसों को संभाल कर रखे कम खर्च करे। 

नीलेपन के जाते ही आर्थिक स्थिति भी बेहतर होती जायेगी tention कम हो जायेगी पत्नी से सम्बन्ध मधुर होंगे।

सबसे छोटी उंगली को कनिष्ठ कहते है कनिष्ठा के नीचे वाले भाग को उच्च मंगल क्षेत्र कहते है (फ़ोटो देखें) यदि इसके आसपास नीलापन नजर आए तो सतर्क हो जाये आपका स्वास्थ्य सही नही है शरीर का routine checkup करा लें ecg, lft करा लें। ईश्वर करे कोई बीमारी न हो लेकिन checkup कराने में कोई हर्ज नही है।

Tip - सुबह उठने के बाद और सोने से ठीक पहले 11 बार ॐ नाद करे, 11 बार अनुलोम विलोम करे, बहुत सी बीमारियां आपसे दूर ही रहेंगी।

कल मिलते है

हरीश शर्मा

Tuesday, August 18, 2020

सुरेश रैना हमारे गुरु भाई -

सुरेश रैना हमारे गुरु भाई-

सुरेश रैना और मैं गुरु भाई है। स्पोर्टस कॉलेज लखनऊ में, मैं 1978 में था और रैना 1999 बैच के।

रैना से मेरी पहली मुलाकात चंडीगढ़ में 2018 15 अगस्त को हुई थी मुझे ए बी पी चैनल के विशेष कार्यक्रम के लिये कैलाश खेर को वाघा बॉर्डर पर लेकर जाना था। चैनल से मेरे पुराने मित्र संजय पांडेय थे । 

संजय पांडेय ने मुझे बताया कैलाश जी के अलावा सुरेश रैना भी इस कार्यक्रम का हिस्सा है। मैंने संजय को बताया मुझे सुरेश रैना से मिलना है हम गुरु भाई है। जब संजय उनसे मिलने जा रहे थे उनके रूम में मुझे अपने साथ ले गये।

रैना को मैंने बताया हम गुरु भाई है मेरे और आपके गुरु दीपक शर्मा जी है तो वो खुश हो गए खड़े होकर हाथ मिलाया गले लगे प्यार से अपनी बगल में बैठाया और कमरे में उपस्थित एक अन्य व्यक्ति का परिचय कराते हुए बोले यह है नीरज चौरसिया एक ओर गुरु भाई हम दोनों एक ही बैच में थे स्पोर्ट्स कॉलेज में। अब नीरज मेरे साथ ही रहते है कोई भी काम हो आप इनसे संपर्क में रहे।

हम तीनों की थोड़ी देर बात हुई हमने स्पोर्ट्स कॉलेज की बात की अपने गुरु क्रिकेट कोच साहब दीपक शर्मा जी की बात की।

चूँकि हम सबको तैयार होकर वाघा पहुँचना था इसलिए हम वाघा पर दोबारा मिलने के वायदे के साथ विदा हुए। 

मैं कैलाश जी को लेकर वाघा पहुँचा थोड़ी देर में रैना और नीरज भी आ गये। मैंने कैलाश जी की मुलाकात रैना और नीरज से करायी और उन्हें बताया हम एक ही कॉलेज से है। 
कार्यक्रम लाइव था हमारे पास काफी समय था चित्रा त्रिपाठी चैनल की प्रस्तोता थी। उस दौरान हमारी काफी बातचीत हुई फ़ोटो खींचे गये। 

मैंने यह ख्याल रखा कि कैलाश जी के अलावा रैना को भी कोई दिक्कत न आये। स्पोर्ट्स कॉलेज में सीनियर और जूनियर का बहुत मसला हमेशा रहा है बात सिर्फ सम्मान की होती है। 

रैना भी इस बात का पूरा ख्याल रख रहे थे और मुझे भाई जी या भाई साहब कह कर ही संबोधित कर रहे थे । 15 अगस्त के कार्यक्रम बहुत सुंदर थे। ए बी पी चैनल, संजय पांडेय और चित्रा त्रिपाठी ने दोनों मेहमानों का बहुत खयाल रखा।

कार्यक्रम के बाद सेना के अधिकारियों के साथ चाय नाश्ते का विशेष कार्यक्रम था जिसमें कैलाश जी और रैना के साथ कम से कम 200 फ़ोटो खींचे होंगे लेकिन दोनों मुस्कराकर सबको खुश करते रहे।

एक बात जो रैना की मुझे नही भूलती चाय नाश्ते के दौरान मैं रैना और नीरज एक साथ खड़े बातें कर रहे थे रैना ने कुछ मजाक किया नीरज ने रैना को टोका तो रैना ने मुस्करा कर कहा भाई साहब बड़े है लेकिन थोड़ा मजाक तो कर सकता हूँ ।

मैंने कहा रैना यह आपका बड़प्पन है जो स्पोर्ट्स कॉलेज का रिश्ता अभी तक निभा रहे है। रैना ने कहा क्या भाई जी अपने लोगो के साथ क्या बड़प्पन। 

वाघा बॉर्डर से होटल वापस पहुँचते हुए नीरज ने मुझे कहा हम लोग  स्वर्ण मन्दिर जाना चाहते है मैंने अपने स्थानीय मित्रो को फोन कर सारा इन्तजाम कर दिया। लेकिन वो लोग किसी कारण से नही जा पाये। मैंने बोला भी अमृतसर आकर स्वर्ण मंदिर न जाना मतलब पुनः आना पड़ेगा यहाँ। पता नही जा पाये या नही।

रैना से एक दिन की मुलाकात हमेशा यादगार रहेगी। नीरज के सम्पर्क में हूँ रैना के बारे में बातचीत होती रहती है। 

रैना पर हम सब कॉलेज वालो को गर्व है वो एक दिवसीय और टी 20 के शानदार खिलाड़ी रहे है उम्मीद है आईपीएल में वो अभी तीन चार वर्ष आराम से खेलते रहेंगे और हमें उनके चोक्के छक्के देखने को मिलते रहेंगे।

उनको शुभकामनाएं नये मुकाम के लिये।

हरीश शर्मा

Monday, August 17, 2020

धोनी को फिल्में दिखाने की जिम्मेदारी थी मेरी -

धोनी को फिल्में दिखाने की जिम्मेदारी थी मेरी-

कल कप्तान कूल ने सन्यास की घोषणा की तो मेरे ज़ेहन में विश्वकप का हेलीकॉप्टर शॉट सबसे पहले आया। सचिन की तरह यदि उन्होने भी घोषणा की होती तो मैच के बाद पूरा स्टेडियम पूरा भारत धोनी धोनी के शोर से गूँज जाता। लाखों करोड़ों लोगों की आँखे नम होती।

लेकिन धोनी तो हमेशा कुछ अलग ही करते है मैदान के अंदर भी मैदान के बाहर भी। इस बार भी इंस्टाग्राम पर अलग ही अंदाज में उन्होने आई पी एल के अतिरिक्त सभी किन्तु परन्तु पर विराम लगा दिया।

सन्यास की घोषणा के बाद लाखों लेख लिखे जा चुके है मैं ऐसा क्या लिखूं जो अलग हो जिसकी चर्चा कम हुई हो। तब मुझे लगा मुझे अपनी मुलाकातें लिखनी चाहिए जो अलग ही थी।

धोनी के बारे में सबसे पहले लगभग 2002/3 में मेरे साथी मित्र दीपक गुप्ता ने मुझे बताया था उनके पापा गोपाल गुप्ता इंडियन एयर लाइन्स की क्रिकेट टीम से जुड़े हुए थे उन्होंने बिहार टीम से खेलने वाले युवा धोनी की बल्लेबाजी के किस्से पढ़े और सुने थे 

उन्होंने एयर इंडिया टीम मैनेजर जय सिंह को यह बात बताई उसके बाद धोनी एयर इंडिया टीम का हिस्सा बने। उसी टीम में धोनी के मित्र बाद में धोनी का तमाम व्यवसायिक कार्य देखने वाले अरुण पांडेय भी खेलते थे। 

गोपाल गुप्ता को लगता था यह लड़का अगले दो तीन साल में भारत के लिए न सिर्फ खेलेगा बल्कि एक दिन कप्तान भी बनेगा।

मुझे लगा अतिउत्साह में दीपक के पापा बोल गये है लेकिन 2004 में जब धोनी की खबरें आने लगी तो मुझे गोपाल गुप्ता की बात सही लगने लगी हालांकि गोपाल गुप्ता जी अब इस दुनियां में नही है लेकिन उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई।

दिसम्बर 2004 के बाद धोनी एक ऐसा सितारा बनकर उभरा जिसका कोई सानी नही। जिसने ऊंचाइयों की उन मंजिलों को छुआ जो कुछ ही लोगो के नसीब में होती है।


मेरी मुलाकात माही से जून 2006 में हुई थी पहली बार दर असल मेरे पास मेरे मित्र अतुल गंगवार का फोन आया माही को अपने कुछ दोस्तों के साथ फ़िल्म फिर हेराफेरी देखनी है क्या आप कुछ ऐसी व्यवस्था कर सकते है लोग अधिक न हो ।

मेरे पास इंदिरापुरम में मल्टीप्लेक्स जेम शिप्रा का पीआर का काम था मेरे मित्र राहुल शर्मा उस मल्टीप्लेक्स को मैनेज करते थे मैंने उनसे बात की यह भी बताया कि कोई मीडिया नही कोई प्रचार नही फिर भी वो तुरंत तैयार हो गए। 

राहुल शर्मा ने नये बने जेम लाउन्ज को हमारे लिए खोल दिया इस लाउन्ज में जाने का रास्ता अलग से ही था उसमें करीब 24 लक्जरी सीट थी। तय समय से धोनी अपने कुछ मित्रों के साथ आये। मैंने अपने फोटोग्राफर मित्र उमेश वर्मा को बुला लिया था।

पहले लाउन्ज में बैठाकर बातचीत हुई फ़ोटो हुए अरुण पांडेय भी साथ थे निशान्त भी थे जो स्पोर्ट्स मैनेजमेंट कंपनी चलाते थे धोनी और अरुण के मित्र थे। तीन चार मित्र ओर थे जिनके विषय में मुझे याद नही। 

धोनी उस समय भी शांत ही रहते थे अभिवादन का उत्तर भी मुस्कराहट से ही देते थे। मैंने पूछा था कैसी फ़िल्म पसंद करते है बोले हर तरह की फ़िल्म अच्छी लगती है लेकिन कॉमेडी की फ़िल्म देखना अधिक अच्छा लगता है। किशोर कुमार के गाने मुझे अच्छे लगते है जॉन अब्राहम की तरह मोटरसाइकिल चलाना उन्हें पसंद है जॉन के अच्छे मित्रों में है। हालांकि उस समय तक उनके पास बहुत बाइक नही थी।

जेम शिप्रा में मैंने माही को करीब चार फिल्म दिखाई थी वहाँ की सुरुचिपूर्ण व्यवस्था से वो बहुत खुश होते थे क्योंकि जिस दिन वो फ़िल्म देखते थे पूरा जेम लाउन्ज सिर्फ हमारे लिए होता था। आज भी जेम शिप्रा से उस समय जुड़े लोग धोनी के व्यवहार से बहुत प्रभावित थे है और रहेंगे।


राहुल शर्मा जो अब भोपाल में एक मॉल का प्रबंधन देखते है ने फ़ोन पर मुझे बताया जब माही तीसरी बार आये जब तक वो चेहरे और नाम से पहचानने लगे थे तब मैंने उनसे एक प्रश्न किया था कि आप मैदान के बाहर ही कूल रहते हो या मैदान में भी ऐसे ही शान्त रहते है जवाब में धोनी ने कहा राहुल जी व्यक्ति की फितरत थोड़ी बदलती है मैं जैसा हूँ वैसा ही हूँ मैदान में भी मैदान के बाहर भी।

राहुल ने मुझे कहा तब मुझे नही पता था कि भविष्य में इसी शान्त स्वभाव की वजह से वो विश्व क्रिकेट में कैप्टेन कूल के नाम से प्रसिद्ध होंगे। 

जेम शिप्रा के अतिरिक्त एक बार हमने धोनी और मित्रों के लिए सितम्बर 2006 में फ़िल्म खोसला का घोंसला फन सिनेमा वैशाली में दिखाई थी रात 9 बजे का शो था भीड़ थी लेकिन ऊपर की 4 पंक्तियाँ सिर्फ हमारे लिए रोकी गई थी। हमें बताया गया धोनी और साथी आधे घण्टे देर से आयेंगे तो मैंने खुद हॉल में उपस्थित लोगों को सच बताया क्या आप लोग इन्तजार कर सकते है धोनी का। 

मैंने कहा मिलवा तो नही सकता लेकिन धोनी सबको हाथ हिलाकर अभिवादन करेंगे। करीब 60 लोग इंतजार करने को तैयार हो गये। धोनी अपने मित्रों के साथ जिनमें दो तीन लड़कियाँ भी थी हमें नही पता उनमें साक्षी भी थी या नही,

हमें इस बात से कोई लेना देना भी नही था। हम तो दो लोगो धोनी और अरुण पाण्डेय को ही जानते थे। चूंकि अतुल गंगवार अरुण और मेरे मित्र थे तो वो साथ होते ही थे।

धोनी उस रात 9.30 बजे पहुँचे जब उन्हें बताया आप लोगो के कारण 60 लोग आपका इंतजार कर रहे है तो सबसे पहले उन्होंने उन सब लोगो से कहा हमारे कारण आपको देरी हुई है we are sorry अब सब साथ साथ फ़िल्म देखते है। मध्यांतर में धोनी ने कुछ लोगो के साथ फोटो भी खिंचवाये और फ़िल्म खत्म होने के बाद फन सिनेमा के सभी स्टाफ के साथ फोटो खिंचवा कर सबको खुश कर दिया।

उसके बाद माही व्यस्त हो गए क्रिकेट में ऊँचे और ऊँचे होते चले गये। फिर हमारी मुलाकात नही हुई लेकिन अरुण पाण्डेय से कभी कभार बातचीत हो जाती थी। 

2012 में कभी मैं मुम्बई से दिल्ली जा रहा था जब एयरपोर्ट लाउन्ज में अरुण पाण्डेय और माही से मुलाकात हुई। माही आई पैड में व्यस्त थे मैंने अरुण से हाथ मिलाया। माही ने मुझे देख अरुण से पूछा कौन तब उन्हें बताया तो उन्हें याद आया। वो और हम एक ही फ्लाइट में थे हैलो हाय बाय हुई। उसके बाद हमारी मुलाकात नही हुई लेकिन मुझे खुशी है भारत के इस महान कप्तान और खिलाड़ी से मेरी छोटी सी ही सही लेकिन अच्छी मुलाकातें रही। 

मुझे उम्मीद है माही सन्यास लेने के बाद भी कुछ अतरंगी काम ही करेंगे सभी रिटायर्ड खिलाड़ियों से एकदम अलग।

हरीश शर्मा

Tuesday, August 4, 2020

अमर सिंह चतुर सच मुंहफट


कहते है जो दिवंगत हो जाते है उनकी अच्छाइयों को ही जग जाहिर करना चाहिए। अमर सिंह कैसे थे इसको लेकर किस्से कहानियों की कोई कमी नही है । मेरी मुलाकाते उनसे अधिक नही 8/10 बार की होंगी । 

पहली बार शायद फ़िल्म हमारा दिल आपके पास है के प्रमोशन के लिए कलकत्ता में मेरी मुलाकात हुई थी दिल्ली से आकर कोई लड़का कलकत्ता के मीडिया को इतने बेहतर ढंग से मैनेज कर सकता है इससे वो प्रभावित हुए थे । 

प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म हुई तो बोले हरीश आप मेरे साथ चलिये, एक ही कार में करीब आधे घण्टे बातचीत हुई मैं हमेशा अच्छा श्रोता रहा हूँ उनसे पहली मुलाकात में ही वो खुलकर बोले इससे मैं यह तो जान गया कि इस व्यक्ति को किसी की कोई परवाह नही। 

मेरे बारे में पूछा, बोले कैसी भी जरूरत हो बताइएगा आप बहुत तरक्की करने वाले है। उस बातचीत की एक बात मुझे नही भूलती उन्होंने बताया जया प्रदा उन्हें हमेशा बेहद पसंद थी फ़िल्म इंडस्ट्री में मेरा सपना था उनके साथ लंच करने का। समय का चक्र देखिये आज जया मेरे साथ है मेरे इर्दगिर्द।

उन्हें अपनी सफलता खासकर फिल्मी लोगो से ताल्लुकात होने का बड़ा गुमान था उन्हें कोई बात छुपाकर बोलने की आदत नही थी या यूं कहें कि वो जानबूझकर ऐसा बोलते थे।

एक दो हीरोइन की फ़िल्म थी जिसका म्यूज़िक लॉन्च इंटरकॉन्टिनेंटल दिल्ली में था अमर सिंह मुख्य अतिथि थे प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद दोनो अभिनेत्रियां मीडिया के लिए रुकी नही यह मुझे बहुत नागवार गुजरा मैंने कई फोन किये फ़िल्म से सम्बंधित लोगो को कोई फोन न ले।

जब मैं पीआर करता था मेरा एक ही उद्देश्य होता था सर्वश्रेष्ठ पब्लिसिटी मिले और मीडिया सन्तुष्ट रहे कि उनका प्रेस कॉन्फ्रेंस में आना सफल रहा कि उन्हें हीरो हीरोइन के इंटरव्यू मिल गये।

मुझे पता चला कि दोनों हीरोइन किस सुइट में है मैं सीधे कमरे में घुस गया दोनो हीरोइन सोफे पर बैठे अमर सिंह के कंधों पर झूल रही थी आप लोग कंधे ही पढ़े, उन्हें अपने हाथों से कुछ खिला रही थी। मुझे देख  निर्माता हीरोइन अमर सिंह सेवादार सब कुछ सेंकेंड के लिये अनमने हुए लेकिन जब देखा यह अपना ही बन्दा है तो पूछा कैसे आना हुआ ।

मैंने कहा आधे घण्टे के लिए दोनो हीरोइन चाहिये इंटरव्यू के लिए । सबने अमर सिंह की तरफ देखा। मुझे देख मुस्कराकर बोले यह हरीश जी कहाँ मानने वाले है । मुझे भी जल्दी जाना है सम्भव हुआ तो देर रात आता हूँ और देर रात वो आये भी।

जब उनका रुतबा शबाब पर था शायद बाद में भी वो किसी को कुछ भी बोल सकते थे जिसे मुँहफट भी कह सकते है लेकिन वो सच ही बोलते थे ऐसा मेरा अनुभव है।

अक्स फ़िल्म की प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान एक फोटोग्राफर ने मेरी शिकायत की आपका पीआर वाला अंदर आने ही नही दे रहा था मुझे पता था वो अमर सिंह का मुँह लगा है लेकिन अमर सिंह को व्यक्ति की परख थी मुझे एक शब्द नही बोले।

मैं एक बार ही उनके घर किसी मित्र के साथ गया था बिना काम के । मुझे जानते तो थे ही हालचाल पूछा बोले कोई खास बात मैंने कहा नही सर् इनके साथ चला आया। खुश हुए बोले चलो कोई तो है जो बिना काम के भी मिलता है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव का समय था मेरे एक मित्र जो अमर सिंह के खास व्यक्ति थे से अचानक बात हुई मैंने कहाँ गायब है इतने दिनों से । मित्र बोले अमर सिंह ने काम पर लगा रखा था हेलीकॉप्टर में बोरे भरकर लखनऊ ले जाने में लगा था । अब आप लोग यह मत पूछना हेलीकॉप्टर में बोरे।

बात अमर सिंह की हो तो यह मान लीजिए जो भी उनसे दो तीन बार मिला होगा उसके पास भी उनके 8/10 किस्से तो मिल ही जायेंगे।

हरीश शर्मा

मेरी आने वाली किताब "20 इयर्स ऑफ एंटरटेनमेंट पीआर" के कुछ अंश।



Tuesday, June 30, 2020

Sushant Singh Rajput and the film industry

Sushant Singh Rajput was not a part of my book initially, because we never worked in close proximity. However, I’m writing on the workings of the film industry and thus, let me take you on that journey through Sushant. Had he knew that after he passed away, there would be so much uproar in the country, errrr, on social media; he may have not done what he did.

I've had a relationship with Bollywood for the last 25-odd years. I’ve worked with the industry for 20 years, and I’ve been a keen observer for the last five.  I hadn’t expected so many people from within the industry to come out with their love for Sushant, let alone the masses. 

A young, successful and good actor leaving us suddenly would have its ramifications. I was affected as well. I had never worked with him, but I had seen his movies and I thought he had potential. I had thought that he’d become a star from the current crop.

I was disturbed when I got to know that dejected people from within the industry started firing bullets from Sushant’s shoulders. I kept on reading, and tried hard to understand why he killed himself.

I tried a lot, but couldn’t get to a meaningful or sensible conclusion. I don’t get the inside news of the industry anymore as I’ve shifted to Goa and I’m mostly writing books. I’m old-school in my habits as well, and thus, I still love my morning cup of coffee with a newspaper. I’m still not hooked up to digital news a lot.

Even then, I opened Mumbai Mid-day online and tried to understand Sushant’s dilemma and desperation. I understood it to a certain extent. According to me, it was so deep and exhaustive that one needed to end his life but such drastic steps are understandable. 

The kind of films Sushant wanted to work in, were never going to be made in this industry. His career also proved that he wanted to do films of different genres and on various subjects. That’s exactly why he fell in the trap of several film directors.

I know that Sushant was relatively row on experience in the film industry. I don’t know much about the people who were around him, but they were not able people. The biggest issue in the film industry is ‘Yes Men’ and ‘Yes Women’. These people never tell stars about real problems, and what is right and wrong. They feel that by agreeing, they’re safeguarding their jobs.

I feel if the people around him had suggested him right, we could’ve saved him. Let’s take a look at the films he was doing.

The first movie ‘Chanda Mama Door Ke’, may be directed by Sanjay Puran Singh Chauhan, He is regularly been in the news since last 10 year, his PR always manages to pull big headlines whenever there is an update.

I would throw some light on the same. A science fiction film then film on Sanjay Gandhi, Then A film explores relations between India and Pakistan. Pakistani actress Mahreen Sayeed was signed for the movie. Actors from India, Pakistan and Bangladesh would work on this project then Special Effects Director John Palmer has also been brought on board for science fiction film.

I got all this information from NDTV India’s entertainment show. While writing this, it took me just 10 minutes to get all this information. Did Sushant and his team not perform R&D on the project before signing the dotted line?  

He should’ve understood that this was a film that wasn’t going to be made. I don’t know the dreams Sanjay showed to Sushant, but he wasn’t taken care of well by his manager and PR team.

I was away from the industry for the last five years and thus, I missed the developments around the project Chanda Mama dur ke completely. Had I known, I would’ve surely posted something at least on social media. 

I’ve no doubts on the qualities of Sanjay as a director. His movie, Lahore, won several awards and there’s no doubt that it was a brilliantly-made movie. Post that, he has been all about announcements and PR and just that.

He should’ve made his next film with the producer of ‘Lahore’. The project was successful. I would like to suggest to Sanjay that good directors like Anurag Kashyap and Tigmanshu Dhulia pull off great cinema in shoestring budgets. I’m sure the sanjay  know what I’m suggesting.

If you can’t make a movie in 10 years after your first film was a success, there’s something wrong with you. Please don’t blame the ‘Mumbai Gang’ for halting your journey.

Sanjay, too, is responsible for breaking Sushant’s dreams. It would be a true tribute if he could make a movie like ‘Lahore’ again and dedicate it to the late actor.

The next name would be Shekhar Kapur. If someone has done the most damage, it’s this man. When he was tweeting one after another on Sushant, I thought of him to be a ‘friend’. But the way he kept Sushant embroiled in his net is brilliant and talks massively about his ability as an individual.

‘Paani’, a movie that has been shelved for 20 years now, was another dream that Sushant saw. If Kapur had made the movie, Sushant’s dream could’ve been saved. If I remember correctly, Shekhar Kapur had wanted to make ‘Paani’ with a then-young Preity Zinta. A lot of water has flown under the bridge since then. I was reading somewhere that he is planning to show the condition of water in 2025-40.

When I was in Pithoragarh in 1987-88, I had read an article written by Rajendra Singh on water. He had written in the full-paged article that in 32 years back, India would have no water and we would no longer live. Even then, I used to think that we would do nothing for water? Would water have to replenish itself?

It’s been 32 years – and nothing much has changed. Yes, the water levels have gone down rapidly in the last few years and we’re on the verge of a collapse, but I still feel nature has kept us sustained and balanced and a little effort can help it back.

If ‘Paani’ was being made for 20 years now, Sushant and his team should’ve thought about the lack of a producer of the film. Shekhar has certainly made three brilliant films, but you can’t stop a budding career for two years on the promise of a movie that was ‘being made’ for 20-odd years. He says after wasting his two years, “Sushant kept his head on my shoulder and wept. I know his pain.”

You took his dates for two years and the result was zero. If one or several producers pulled out of your project, the responsibility lies on you and your script, and not in Sushant or Preity. Can you imagine the punishment for wasting two years of a special talent and breaking his dreams?

You’re playing a very smart game on Twitter, so no one blames you. Shekhar announced that he had informed Sushant that producers had said they won’t do ‘Paani’ with the actor. That had broken him down and he had cried with Shekhar. Shekhar also said that he wanted to make another film with Sushant but he couldn’t. This had made Sushant upset and he had gone abroad.

This means that Shekhar promised Sushant without having a producer on board and wanted to cash in on the actor’s ability and success. He should’ve first got a producer on board, consulted him and then promised an actor. It was Shekhar’s fault and not Sushant’s.

Make ‘Paani’ now. You’ve a producer ready; choose a different ‘big’ actor and complete your dream project and dedicate it to Sushant. 

I’m not sure but I read this somewhere that Sushant denied a Sanjay Leela Bhansali movie because he had promised you his dates. If that is true, I wonder how you can even sleep at night! Bhansali’s movie would have been a massive project; but it never happened because of your promise. It must've taken anywhere around 5 projects out of his hand.

I request you to stop crying crocodile tears and think on how you intend to pay back to Sushant.

Before we move on the next project, I would like to tell you about the seven films that Sushant lost and that made him worried. I gave a lot of hours to the internet and YouTube, but the names were nowhere. If anyone knows about these 7 names, please reach out to me. I’ve no inkling who developed this theory, but it enraged Sushant’s fans a lot.

Moving on to ‘Rifleman’, the movie was being produced by Abudantia Entertainment, but the film is currently shelved due to issues with the story. 

Anand Gandhi received huge acclaim for his first film ‘Ship of Thesus’ that was released in 2013. He had told the media that he had been meeting Sushant for the last two three months and they were discussing a story. He also said that Sushant had liked the story, based on Emergency 1975.

Anand is saying a lot of things, but let’s be honest; we still have to google him to know more about him. He’s not even properly famous. After the success in 2013, he has never directed a feature film. You’ve been doing this and that all this while, but where’s the end product? Where’s your producer? Which American company is putting money on you?

By the same logic, I can also say that I’m working with a Hollywood company. I’m writing four scripts for movies. But people have all the right to ask questions.

You came into limelight by making a good movie in 2013. Now to prove yourself, you should’ve directed another in the next seven years! You can produce it yourself. Who’s your actor? Who’s producing it if you’re not?

Sushant was making a 12-part series with his friend and partner Varun Mathur but there was no surety on that project either. If reports are to be believed, there is no confirmation of the project that was encapsulating journeys of Chanakya to APJ Abdul Kalam.

Sanjay Leela Bhansali has said, or it was reported, that he had offered Sushant four films. Even if he had offered him one, it would have been bigger than all these films that Sushant wasted his dates and time on. It would’ve been made, would have been released and had better chances of becoming a hit.

One thing is certain – no one in the industry can stop people betting on the winning horse, and Sushant was one such horse. After 3-4 hits, actors in our industry cement their places for at least 10 years. He had no dearth of offers, but it was on him to pick and choose. He had to decide whether he would enjoy the success or would self-implode due to the defeats.

I’ve been reading that a few successful people have ruined Sushant’s career. Claims like these make me laugh. Everyone in the industry is trying to save their own career and no one has enough time to disrupt someone else’s. If you think sensibly, is there any comparison between Salman, Shahrukh and Sushant? And if you look at it closely, Sushant wasn’t really a threat to even Ranbir or Ranveer.

Favouritism and nepotism – two heavy words – have been doing the rounds lately. To explain these, let me add two more words – comfortable and behavior – to explain them better.

Favouritism, nepotism and comfortability are deeply interlinked. For example, Karan Johar made ‘Student of the Year’ with Siddhart Malhotra, Varun Dhawan and Alia Bhatt. The movie was a success, but had its chances of failure. Karan played a roll of dice and won when there was an equal, or maybe more, chance of losing.

Which category would you keep Karan in in perspective with these three actors? Let’s keep him in both favouritism and nepotism. If he makes a film with these actors after SOTY, he would be comfortable with them, and their behavior towards Karan would always be full of reverence, because the director made them what they are today.

If any producer understands that he would make millions by putting money on Alia or Sushant, nothing could stop them from doing it. Sushant had reached that bracket. There’s space for everyone in the industry. How you keep yourself afloat with sensibility, tact and a bit of luck depends on you.

It doesn’t take the insiders a lot of time to push you out if you are not successful. Everyone needs to fight their own battles. You can blame someone else for your failures, but everyone knows the truth within themselves.

Sushant would have stayed in the industry comfortably for the next 10 years without any major hiccups. However, in the last 2-3 years, he had signed several films which did not see the light of day. These were projects that were different from the regular humdrum, and had they been completed, Sushant’s dreams would’ve come true. He wanted to pitch himself as one different from the league, but when these films weren’t made, he got understandably worried. 

Sushant may have denied Bhansali and two-three other big producers due to these movies. When such big names are denied, it takes a toll on their ego more often than not. Corporate houses, too, have their respect quotient high and a blot on it is not very kind. 

This pushes film producers away from actors and they stop approaching such actors, thinking they already have projects in their hand, or on the baggage of the previous denial.  

Even if Sushant’s films weren’t being made, he shouldn’t have worried. He should’ve asked his PR team to get 3-4 interviews in leading newspapers (which would’ve been easy given his stature) and said that his dates were free and his signed movies had been postponed. At the level he was, he would surely have received offers.

He was successful, but big banners wouldn't have paid him according to his wish. He was probably in a big banner-less money, small banner-more money conundrum. Had he worked for 1-2 films under big banners and made them hits, he could’ve jumped into the league where he could command his fees.

I can’t agree that Sushant did not have films or a financial issue. I recently read that he had an offer worth Rs 14 crore for a web series. The films that weren’t made wasted his time, but not his talent or position. However, he must’ve been sad that those films weren’t completed.

What then, could be a reason for taking such a big step? Was heartbreak a reason? I don’t think he was so weak. I don’t think he was into drugs – he was far too bright to take such a step. There was no suicide note. 

Maybe something comes out during the investigation. His mobile and computer or laptop or other such devices could have a note, or an uncompleted draft.

A lot of people including me leave their pending work, thoughts, fantasies and what not written in drafts. If nothing is found there, it would be difficult to find a reason for Sushant’s suicide ever. Even more difficult would be finding a plausible and concrete reason.

I read that a lawyer had filed a case of abetment of suicide against seven directors producers actors. I feel the government should ban filing of such cases until a matter is under investigation.

Some people might think that I’m supporting the people who are being protested against by everyone. But I’ve never met Karan Johar or Sanjay Leela Bhansali and it’s been nearly 10-15 years that I met Shahrukh or Salman. 

They might not even recognize me if I come in front of them. I’m writing only what my experiences in the industry have taught me over the last 20 years or more.

From my forthcoming book "20 Years of Entertainment PR"

Harish Sharma



Tuesday, June 23, 2020

सुशांत सिंह राजपूत और फ़िल्म नगरी


सुशांत सिंह राजपूत और फ़िल्म नगरी 

सुशांत सिंह राजपूत मेरी आने वाली किताब का हिस्सा नही थे क्योंकि मेरा उनसे कभी वास्ता नही पड़ा। लेकिन फ़िल्म उद्योग की कार्यशैली पर मुझे विस्तार से लिखना ही था। अब वही कार्यशैली सुशांत के माध्यम से आप लोगो के समक्ष है।

सुशांत सिंह राजपूत को पता होता कि उनके जाने के बाद देश में माफ कीजिये सोशल मीडिया पर इतना बवाल होगा और देश मे उनके इतने चाहने वाले है तो अपनी जान कतई नही लेते।

वैसे मेरा रिश्ता फ़िल्म उद्योग से जिसे आसान भाषा में सब बॉलीवुड कहते है पिछले 25 साल से है। 20 साल सक्रिय और 5 साल बतौर दर्शक। 

सुशांत सिंह के जाने के बाद उनके इतने हितैषी मिलेंगे मुझे उम्मीद नही थी, जनता जनार्दन का तो समझ आता है । एक युवा आकर्षक सफल अभिनेता के अचानक चले जाने का वास्तव में आघात लगा था। मुझे भी लगा। कभी उनके साथ काम नही किया था हाँ उनकी फिल्में देखी थी प्रतिभाशाली थे लगा था चलो नई पौध में एक सितारा यह भी होगा।

लेकिन मैं विचलित हुआ जब फ़िल्म नगरी के कुंठित हताश निराश लोगो ने सुशांत के अशरीरी कंधे पर बंदूक रखकर चलाना शुरू किया। मैं फिर भी देखता रहा पढ़ता रहा समझने की कोशिश करता रहा इस सफल लड़के ने खुदकुशी क्यों की होगी ।

जितना पढ़ा देखा, लोगो का ज्ञान समझने की कोशिश की, नही समझ आया दिमाग का दही हो गया। किताबें लिखने के कारण गोआ रहता हूँ तो मुम्बई मीडिया की खबरें नही मिल पाती है। ओल्ड स्कूल होने के कारण अभी भी कागज वाला अख़बार ही पढ़ने की आदत है डिजिटल के माध्यम से खबरों की खुशुबू नही आती। 

लेकिन मुम्बई मिडडे को डिजिटल मीडिया पर खोल ही लिया और मुझे बहुत हद तक सुशांत की हताशा समझ आ गई। हालांकि वो इतनी गहरी नही है कि कोई खुदकुशी कर ले लेकिन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की समझ तो हो ही जाती है। सुशांत ने जिन फ़िल्मों में काम करने का सपना देखा था वो तो बननी ही नही थी। लेकिन यह समझ भी आया यह लड़का अलग तरह की फिल्में करना चाहता था। इसलिये ही वो ऐसे फ़िल्म निर्देशको के जाल में फंस गया।

मैं समझ सकता हूँ सुशांत फ़िल्मों की दुनियाँ के लिए कम अनुभवी थे । मुझे नही पता उनके इर्दगिर्द कौन लोग थे लेकिन जो भी थे वो काबिल नही थे यह पक्का है। हमारी फ़िल्म नगरी की सबसे बड़ी समस्या यस मैन और यस वुमन की है। वो सितारों को यह नही बताते उनके लिए सही क्या गलत क्या है। उन्हें लगता है हमने यस sir नही कहा तो नोकरी भी जा सकती है ।

उनके इर्दगिर्द जो समझदार लोग थे उन्होंने सुशांत को सही सलाह दी होती तो उन्हें बचाया जा सकता था। आइए अब उन फिल्मों पर नज़र डालते है जो वो कर रहे थे।

पहली फ़िल्म का नाम है "चंदा मामा दूर के" निर्देशक संजय पूरन सिंह चौहान, 2010 में लाहौर आयी थी उनकी, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था अच्छी फिल्म थी।जितनी बड़ी फिल्म थी उतनी ही सफलता उसे मिली थी। इस निर्देशक की पीआर समझ इतनी जबरदस्त है वो ऐसी घोषणा करते है कोई न कोई मुख्य मीडिया उनको बड़े बड़े हैडिंग के साथ छाप ही देता है। आप 2010 से हर साल उनकी कवरेज गूगल देवता में सर्च कर सकते है। 

मैं कुछ प्रकाश डालता हूँ। एक साइंस फिक्शन फ़िल्म नाम पता चलते ही बताया जायेगा, संजय गाँधी पर फ़िल्म, भारत पाकिस्तान रिश्तों पर फ़िल्म पाकिस्तानी अभिनेत्री महरीन सईद को साइन किया गया, इस फ़िल्म में भारत पाकिस्तान बांग्लादेश के सितारे काम करेंगे,साइंस फिक्शन फ़िल्म के लिये हॉलीवुड के स्पेशल इफेक्ट डायरेक्टर जॉन पाल्मार को साइन किया गया।

मुझे यह सारी जानकारी एनडीटीवी इण्डिया के मनोरंजन जगत कार्यक्रम से मिली। सारी नकली घोषणा एक ही टीवी के एक ही प्रोग्राम में यह भी मुझे चौकाता है। 

जब यह लेख लिखते समय 10 मिनट के रिसर्च से मैं यह सब तलाश कर सकता हूँ तो क्या सुशांत सिंह या उनकी टीम ने चंदामामा दूर के साइन करने से पहले संजय पर आर एन डी क्यों नही की। यदि करते तो समझ आ जाता कि यह फ़िल्म नही बननी थी उनकी अन्य फिल्मों की तरह। संजय ने सुशांत को क्या सपने दिखाए मुझे नही पता लेकिन उनके मैनेजर पी आर टीम आदि क्या कर रहे थे।

फ़िल्म दुनियाँ और मुम्बई से दूर हो जाने के कारण मेरी नजर चंदामामा दूर के पर नही पड़ी वरना मैं कुछ नही तो सोशल मीडिया पर पोस्ट करता ही। मुझे संजय की प्रतिभा पर कोई शक नही है लाहौर जैसी नॉन स्टारकास्ट फ़िल्म को सफल बनाकर अवार्ड जीतना आसान बात नही है फ़िल्म की तारीफ भी बहुत हुई थी। लेकिन उसके बाद क्या, सिर्फ घोषणाएं और मीडिया कवरेज।

लाहौर सफल फ़िल्म थी उस फिल्म के निर्माता के साथ ही फ़िल्म बना लेते। संजय को मेरी सलाह है कि फ़िल्म उद्योग में अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया जैसे कमाल के निर्देशक है इन्हें महारत हासिल है कि इन्हें आप अभाव बजट फिल्मों का निर्देशन दे दीजिये यह कमाल की फ़िल्म बना देते है लेकिन जैसे ही 50/60/80 करोड़ की फ़िल्म बनाने को दे दी तो दिक्कत होती है।आप समझ ही गये होंगे मैं क्या कहना चाहता हूँ।  

आप 10 साल में एक सफल फ़िल्म के बाद दूसरी फिल्म नही बना पाते तो कही तो कमी आप में है ही। अब यह मत कह दीजियेगा कि मुम्बई गैंग ने आपको आगे बढ़ने ही नही दिया।

तो सुशांत के सपनों को तोड़ने की जिम्मेदारी संजय की भी है। अब आप लाहौर जैसी दूसरी फिल्म बनाये और सुशांत को समर्पित कर दे।

अगला नाम मैं लेना चाहूँगा शेखर कपूर का सबसे ज्यादा चोट यदि किसी ने मारी है तो वो मारी है शेखर कपूर ने। जब वो दे ट्वीट दे ट्वीट करें पड़े थे तो मुझे लगा यार कितना बड़ा हितैषी है यह व्यक्ति सुशांत का। लेकिन एक नये बच्चे को कैसे शेखर ने अपने मोहपाश में जकड़ा होगा यह उनकी काबिलियत भी है। 

पानी नही भाई मैं लिखते हुए थका नही हूँ जो पानी माँग रहा हूँ यह एक बीस साल पुरानी फ़िल्म है यदि 20 साल पहले बन जाती तो सुशांत पानी का सपना देखने से बच जाते।

मेरी याददाश्त यदि सही है तो सबसे पहले शेखर कपूर पानी जवान रही प्रीति जिंटा के साथ बनाना चाहते थे तब से कितना पानी बह गया। मैं कहीं पढ़ रहा था वो फ़िल्म में दिखायेंगे 2025 में पानी की क्या स्थिति होगी।

मैं जब पिथौरागढ़ में था 1987/88 में तो पानीविध राजेन्द्र सिंह शायद यही नाम है उनका एक लेख पढ़ रहा था उस समय, कटिंग भी रखी होगी कही, पूरे पेज में उन्होंने चिन्ता जाहिर की थी अगले 20 साल में अपने देश से पानी खत्म हो जायेगा और हम त्राहि त्राहि करेंगे। मुझे उस समय भी लगता था कि क्या हम पानी के लिए कुछ नही करेंगे जो करेगा पानी ही करेगा। 

32 साल हो गये हमनें बहुत कुछ तो नही किया लेकिन प्रकृति ने अधिकतर हमें समृद्ध ही रखा। 

जब पानी 20 साल से बन रही है तो सुशांत को उनकी टीम को सोचना चाहिये था निर्माता कहाँ है। शेखर ने बेशक तीन बेहतरीन फ़िल्म बनाई है लेकिन एक बच्चा आपकी न बनने वाली फिल्म के लिए अपने बेशकीमती दो साल बर्बाद कर देता है और आप कहते है मेरे कंधे पर सिर रख कर रोया था सुशांत उसका दर्द मैं जानता हूँ । 

दो साल की पूरी तारीखें ले ली आपने, शेखर कपूर फ़िल्म के लिए यदि किसी या बहुत से निर्माताओं ने अपने कदम वापस खींच लिये तो कमी आप में है आपकी कहानी में है । प्रिटी जिंटा या सुशांत सिंह में नही। समझते है किसी प्रतिभाशाली कलाकार के दो साल और अनगिनत सपनो को तोड़ने के अपराध की सजा क्या होनी चाहिये। 

और आप ट्वीटर ट्विटर खेलकर बकवास कर रहे है कि कोई आप पर उंगली न उठा दे। शेखर ने कहा जब निर्माता ने पानी के लिए कहा कि हम सुशांत के साथ फ़िल्म नही कर सकते तो सुशांत रोया और मैं भी, फिर मैं उसके साथ दूसरी फिल्म बनाना चाहता था लेकिन नही बना पाया तो अपसेट होकर विदेश चला गया। 

इसका सीधा मतलब है कि आपने सुशांत को पहले फुसलाया उसकी सफलता को केश करने के लिए उसे तैयार किया स्वाभाविक है शेखर निर्देशन करेंगे तो बिग बजट फ़िल्म होगी। लेकिन निर्माता ने मना कर दिया। तो मान्यवर पहले आप पानी के लिए निर्माता को तैयार करते फिर उनसे सलाह लेकर हीरो साइन करते। कमी आप में है सुशांत में नही।

चलिये आप अब बनाकर दिखा दीजिये पानी, निर्माता तो तैयार है ना आपके साथ, दिक्कत हीरो की है लाइए बड़ा हीरो और बनाइये अपना ड्रीम प्रोजेक्ट और सुशांत को समर्पित कीजिये।

मुझे पक्का नही पता लेकिन सब जगह खबर है कि आपकी नसुडी फ़िल्म के लिए सुशांत ने संजय लीला भंसाली की फ़िल्म को तारीखों के चलते न कर दिया था यदि यह सच है तो मुझे नही पता आप सो भी कैसे पाते होंगे। सुशांत तो बिल्कुल नही सो पाता होगा । इतनी बड़ी फिल्म जिसका पक्का पता था कि बहुत बड़ी रिलीज होगी । आपको दी गई 2 साल की date के कारण निकल गई अन्य भी कम से कम 5 फिल्में तो उसके हाथ से निकली ही होंगी।

आपसे गुज़ारिश है अपने घड़याली आंसू बहाना बन्द कीजिये और यह सोचिये कि आप सुशांत की आत्मा का कर्ज कैसे चुकायेंगे।

मैं सुशांत की अगली फिल्म की बात करू उससे पहले मैं यह जानना चाहता हूँ वो कौन सी 7 फिल्में है जो सुशांत सिंह के हाथ से निकल गई जिनकी वजह से वो बहुत परेशान था । मैंने बहुत कोशिश की गूगल पर यूट्यूब पर दो तीन घण्टे खराब किये कहानी ज्ञान आदि तो बहुत मिले लेकिन वो 7 नाम नही मिले। किसी को मिले तो कृपया बताये। किस योजना के तहत यह 7 फिल्मों की कहानी गड़ी गई मुझे नही पता लेकिन इन 7 फ़िल्मों की कहानियों ने सुशांत के चाहने वालो में खूब रोष भर दिया।

अब आगे चलते है फ़िल्म का नाम राइफल मैन निर्माण कम्पनी अबुदन्तिया एंटरटेनमेंट कहानी को लेकर विवाद फ़िल्म फिलहाल बन्द,

आनन्द गाँधी ने अपनी पहली फ़िल्म शिप ऑफ थीसिस रिलीज 2013 को लेकर बहुत प्रशंसा पाई थी। उन्होंने मीडिया को बताया वो पिछले तीन महीनों से सुशांत से लगातार मिल रहे थे कहानी स्क्रिप्ट पर चर्चा कर रहे थे। फिल्म एमरजेंसी की कहानी उन्हें बहुत पसन्द थी। 

आनन्द बहुत कुछ कर रहे है लेकिन बुरा न लगे तो यदि आपकी उपलब्धियों को जानने के लिए गूगल खंगालना पड़े तो आप अभी बहुत अधूरे है। 2013 के बाद आप कोई फीचर फिल्म ही डायरेक्ट नही कर पाये। आपने कहा यह कर रहे है वो कर रहे और न जाने क्या क्या कर रहे है मेरे भाई निर्माता कौन है। वो अमरीकन कम्पनी कौन सी है।

ऐसे तो मैं भी चार फ़िल्म लिख रहा हूँ मैं भी कह देता हूँ जिसके निर्माता हॉलीवुड की बड़ी कम्पनी है। लेकिन कौन सी लोग पूछेंगे ना। 

आप यदि 2013 में एक चर्चित फिल्म बनाकर चर्चा में आये थे तो खुद को साबित करने के लिए एक फ़िल्म तो निर्देशित करनी थी । चलिये अब बता दीजिए किसके साथ बना रहे है हीरो कौन है निर्माता कौन है आप हमारी और अपनी तसल्ली के लिये कह सकते है कि निर्माता भी आप ही है तो सात साल में क्यो नही हो पाए।

सुशांत अपने मित्र और पार्टनर वरुण माथुर के साथ एक 12 पार्ट की सीरीज बना रहे थे जिसमें चाणक्य से लेकर अब्दुल कलाम तक नजर आते लेकिन वो भी हवा में ही थी, अख़बार की खबर सही माने तो उसका भी भविष्य निश्चित नही था। 

संजय लीला भंसाली ने कहा,कहा या नही मुझे नही पता कि मैंने सुशांत को चार फिल्में offer की थी। मैं मानता हूँ चलो एक ही की हो तो भी वो इन सब फिल्मों पर भारी ही होती। रिलीज भी होती और हिट होने की संभावना भी अधिक होती।

एक बात तो निश्चित मान लीजिये फ़िल्म उद्योग में जीतने वाले घोड़े पर बड़े से बड़ा तुर्रम खाँ भी दाँव लगाने से नही रोक सकता और सुशांत वैसा ही घोड़ा था। तीन चार हिट फिल्म देने के बाद हमारे यहाँ हीरो 10 साल तक अपनी जगह पक्की कर लेता है। उसे फ़िल्मों की कोई कमी नही होती यह उसको सोचना है कि उस सफलता को कैश करना है या सफलता के नशे में चूर होकर बर्बाद होना है।

हर जगह पढ़ रहा हूँ कि फ़िल्म उद्योग के कुछ नामचीन लोगो ने सुशांत का कैरियर बर्बाद कर दिया। मुझे बड़ी हंसी आती है इन बचकानी बातों पर। यहाँ सबको अपना कैरियर बचाने की चिन्ता होती है किसी के पास इतनी फुर्सत नही होती कि वो दूसरे के फटे में पैर डाले। आप बुद्धि से सोचे सलमान खान या शाहरुख खान की सुशांत सिंह से क्या तुलना। सुशांत से इनको यहाँ तक कि रणबीर सिंह या रणबीर कपूर को भी क्या खतरा। 

Favoritism और Nepotism  यह दो वजनदार शब्द भी बहुत चर्चा में है इन दिनों, इन दो शब्दों के साथ दो शब्द और जोड़ देते है समझने में आसानी होगी। Comfortable और behavior,

F N और C का गहरा रिश्ता है आपस मे। उदाहरण के तौर पर आलिया भट्ट की बात करते है महेश भट्ट की बेटी, करण जौहर ने फ़िल्म बनाई दो नये हीरो थे सिद्धार्थ मल्हौत्रा और वरुण धवन नई हीरोइन आलिया। फ़िल्म तो पता ही है आप लोगों को स्टूडेंट ऑफ दी ईयर 2012,

क्या लगता है आप लोगो को आसान बात थी यह फ़िल्म बनाना, आप कह सकते है हाँ आसान था। मैं कहता हूँ बहुत कठिन लेकिन करण जौहर का अनुभव और अभिनेताओं के नाम पर बन्द मुठ्ठी। करण जौहर ने जुआ खेला और जीत गये, हार भी सकते थे हार का प्रतिशत बहुत अधिक था। 

अब करण को किस श्रेणी में रखेंगे आप। Favoritism मान लेते है Nepotism वो भी मान लेते है । लेकिन इस फ़िल्म के बाद करण यदि इनके साथ फ़िल्म बनाते है तो वो होगा Comfortable साथ ही behavior तो उनका अच्छा होगा ही क्योंकि जो भी आज वो तीनों है करण की वजह से ही है। 

वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूं नेटफ्लिक्स पर हाल ही में release हुई फ़िल्म Drive सुशांत सिंह की सबसे घटिया फ़िल्म है इतना सुलझा हुआ लड़का इतनी बचकानी और वाहियात फ़िल्म कैसे sign कर सकता है और इस फ़िल्म के निर्माता करण जौहर है वो कैसे धर्मा प्रोडक्शन के बैनर में इतनी बुरी फ़िल्म बना सकते है जिसे 15 मिनट भी झेलना दुष्कर है।वैसे इससे पहले करण ने कलंक बनाकर भी धर्मा और खुद पर कलंक लगवा ही लिया है।

मैं हरेक फ़िल्म में कोई खूबी निकाल कर खुद को नकारात्मकता से बचाने की कोशिश करता हूँ लेकिन Drive ने मुझे एक क्षण को भी ड्राइव नही किया। फिर नेटफ्लिक्स भी कैसे इतनी बकवास फ़िल्म अपने नेटवर्क पर पेश कर सकता है । इस फ़िल्म को देखकर मुझे लगता है यह फ़िल्म जानबूझकर तो घटिया नही बनाई गई। वजह मत पूछियेगा लेकिन यदि जानबूझकर घटिया बनाई गई तो इतना जान लीजिये कि सुशांत को यह बात पता थी।

अब आगे - आप जान लीजिये करण को ही नही किसी भी निर्माता को ख़ुशबू आ जाये कि आलिया या सुशांत को लेकर फ़िल्म बनाने से भरपूर पैसा आयेगा तो कोई कुछ भी कहता रहे निर्माता को कोई नही रोक सकता। सुशांत उस श्रेणी में पहुँच चुके थे।

फ़िल्म उद्योग में हर किसी के लिए जगह है आप उसमें किस होशियारी और भाग्य के सहारे खुद को फिट कर पाते है यह समझ होना बहुत जरूरी है। लेकिन यदि आप सफल नही हुए तो दूध में पड़ी मख्खी की तरह निकालने में भी यहाँ देर नही लगती। आपको अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है आप किसी दूसरे पर अपनी तसल्ली के लिए आरोप लगाकर संतुष्ट हो सकते है लेकिन सच्चाई आप जानते है।

सुशांत को 10 साल तक चिन्ता की कोई जरूरत नही थी लेकिन मुझे लगता है पिछले दो तीन वर्षों में उन्होंने खुद लीक से हटकर फिल्में साइन की थी जो यदि बनती तो शायद उनका वो सपना पूरा होता जो उन्होंने देखा था। अपने आप को मुख्यधारा की फिल्मों से अलग फिल्मों का हीरो साबित करना, लेकिन उन्हें जब लगा होगा कि जो फिल्में उन्होंने साइन की है वो तो बनने वाली है नही तो चिन्ता होना स्वाभाविक है। 

यह हो सकता है कि सुशांत ने इन न बनने वाली फिल्मों की खातिर भंसाली को मना किया हो दो तीन और बड़े निर्माताओं को मना किया हो ऐसे में संभव है अन्य निर्माताओं और कॉरपोरेट हाउस ने सोच लिया हो कि जब यह भंसाली यशराज को मना कर रहा है तो इसे फिल्में नही करनी है और तब समस्या होती है ईगो की । फ़िल्म निर्माता आपसे दूर होने लगते है। आप इसलिये नही जाते कि आपके पास तो फिल्में है ही।

यदि यह फिल्में नही बन रही थी तब भी कोई समस्या नही थी आपको अपने पीआर के द्वारा सिर्फ तीन चार मुख्य अखबारों में इंटरव्यू देने थे कि मेरी डेट अभी खाली हो गई है जिन फ़िल्मों को मैंने डेट दी थी उन फ़िल्मों को बनने में देर है। यकीन मानिये जो मुकाम सुशांत ने बना लिया था उससे उसे कुछ बड़ी फिल्में मिलती ही मिलती बशर्ते उन्होंने छिछोरे फ़िल्म के बाद अपनी फीस अनाप शनाप न बड़ा दी हो।

वो सफल तो थे लेकिन इतने नही कि बड़े बैनर उनकी मन मुताबिक फीस देते। बड़ा बैनर कम फीस छोटा बैनर अधिक फीस वाली स्थिति में थे सुशांत। बड़े निर्देशक की एक दो फिल्में और हिट होती तो वो किसी भी बैनर की फ़िल्म अपनी मर्जी की फीस और सहूलियत से कर सकते थे।

मैं यह मानने को तैयार नही हूँ कि सुशांत के पास फिल्में नही थी या कोई आर्थिक समस्या थी या उनको फिल्मों के प्रस्ताव नही मिल रहे होंगे आज ही मैंने पढ़ा उनके पास एक वेब सीरीज का प्रस्ताव था 14 करोड़ रुपये का। न बनने वाली फिल्मों से तो उनका थोड़ा समय ही खराब हुआ होगा और कुछ नही। हाँ मन मुताबिक फिल्में न बनने से मायूसी जरूर आई होगी।

फिर क्या वजह हो सकती है इतना बड़ा कदम उठाने की, क्या प्यार वो वजह थी इतना कमजोर नही लगता सुशांत मुझे, ड्रग के किस्से तो हम आये दिन पढ़ते ही है लेकिन सुशांत की मासूमियत देखकर लगता नही कि वो ड्रग लेते होंगे। 

कोई सुसाइड नोट मिला नही है। शायद मोबाइल से कोई जानकारी मिले, उनके कम्प्यूटर लेपटॉप को भी खगालना चाहिये सम्भव है कोई उनकी लिखी चिठ्ठी ड्राफ्ट में पड़ी हो।

मेरे सहित बहुत से लोग भविष्य में करने वाले काम लिखकर ड्राफ्ट में छोड़ देते है। यदि वहाँ कुछ नही मिलता तो सुशांत की खुदकुशी के कारण का पता चलना बहुत मुश्किल है। खासकर उन कारणों को तो भूल ही जाए जो आपके कान सुनना ओर आँखे देखना चाहती है।

कल पढ़ रहा था किसी वकील साहब ने 7 लोगों पर मुकदमा दायर कर दिया है बिहार में कही कि फ़िल्म सितारों और निर्माता कम्पनियों के कारण सुशांत ने खुदकुशी कर ली। सरकार और अदालतों को इस परम्परा पर अंकुश लगाना चाहिये जब केस स्थानीय पुलिस के जाँच दायरे में है उनके निर्णय आने का इंतजार करना चाहिए ऐसा मुझे लगता है।

कुछ लोगो को लग सकता है कि दुनियाँ जिसका विरोध कर रही है मैं उसका सहयोग कर रहा हूँ तो जान लीजिए करण और भंसाली से मैं आज तक नही मिला, सलमान शाहरुख से मिले हुए दस पंद्रह साल हो गये है। सामने पड़ जाऊं तो पहचानेंगे भी नही। मैं वही लिख रहा हूँ जो मेरा 20 वर्ष का अनुभव मुझसे लिखा रहा है।

मेरी प्रकाशित होने वाली किताब के कुछ अंश।

हरीश शर्मा